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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
ज्ञानेन्द्रियाँ, तीन योग, श्वासोच्छ्वास और आयु जो वस्तुएँ जीव को जन्म लेते ही माप्त होती हैं, उनकी प्रवृत्ति स्वतन्त्र रूप से न होने देना हिंसा है ।
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यहाँ एक प्रश्न खड़ा होता है, क्या बालक को जिसे अपने भले बुरे का ज्ञान नहीं है स्वतन्त्र रूप से चलने देना चाहिए ? इसी का उत्तर देने के लिए लक्षण में 'प्रमत्तयोगात्' लगा हुआ
। अगर बालक की स्वतन्त्र वृत्ति को रोकने में उद्देश्य बुरा नहीं है तो वह हिंसा नहीं है । अपने किसी स्वार्थ की पूर्ति के लिए, राग या द्वेष से प्रेरित होकर या लापरवाही से अगर ऐसा किया जाता है तो वह वास्तव में हिंसा है। बालक को अच्छी बातें सिखाने के लिए, उसका विकास करने के उद्देश्य से अगर कुछ किया जाय तो वह हिंसा नहीं है ।
हिंसा दो तरह की होती है- द्रव्यहिंसा और भावहिंसा । किसी को कष्ट देना या मार डालना द्रव्यहिंसा है । दूसरे को मारने या कष्ट पहुँचाने के भाव हृदय में लाना भावहिंसा है। लौकिक शान्ति के लिए साधारणतया द्रव्यहिंसा को रोकना आवश्यक समझा जाता है। एक व्यक्ति दूसरे के प्रति बुरे भाव रखता हुआ भी जब तक उन्हें कार्यरूप में परिणत नहीं करता तब तक उन भावों से विशेष नुकसान नहीं समझा जाता किन्तु धार्मिक जगत् में भावों की ही प्रधानता है। एक डाक्टर रोगी को बचाने की दृष्टि से उसका ऑपरेशन करता है। डाक्टर के पूर्ण सावधान रहने पर भी ऑपरेशन करते समय रोगी के प्राण निकल गए। ऐसे समय भावना शुद्ध होने के कारण डाक्टर को हिंसा का दोष नहीं लगेगा। दूसरी तरफ एक वैद्य किसी रोगी से शत्रुता निकालने के लिए उसे बुरी