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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
सांसारिक और आध्यात्मिक सभी बातों में मतान्धता का यही एक मूल कारण है। किसी एक घटना को लेकर हम एक व्यक्ति को अपना शत्रु मान लेते हैं, दूसरे को अपना मित्र मान लेते हैं । उस माने हुए शत्र को नुकसान पहुँचाने में अपना हित समझते हैं चाहे उस से हानि ही उठानी पड़े। प्रिय व्यक्ति का हित करना तो चाहते हैं किन्तु अपनी दृष्टि से । चाहे हमारा सोचा हुआ हित वास्तव में उस व्यक्ति के लिए अहित ही हो। जो हम पर क्रोध कर रहा है सम्भव है उस की परिस्थिति में हम होते तो उस से भी अधिक क्रोध करते किन्तु फिर भी हम उसे बुरा समझते हैं और अपने को ठीक । दूसरे को बुरा मानने से पहले यदि हम अनेकान्त दृष्टि को अपनाकर सब तरह से विचार करें तो दूसरे पर क्रोध करने की गुञ्जायशन रहे।
दार्शनिक झगड़ों का भी स्याद्वाद अच्छी तरह निपटारा करता है । दूसरे दर्शनों के प्रति उपेक्षा रखते हुए अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन करने में ही जैन सिद्धान्त अपने कर्तव्य की इतिश्री नहीं समझता। इसने दूसरे सिद्धान्तों की गहराई में घुस कर पता लगाया कि वे सिद्धान्त कहाँ तक ठीक हैं और वे गलत क्यों बन गए । समन्वय की दृष्टि से की गई इस खोज का नतीजा यह हुआ कि सभी दर्शन किसी अपेक्षा से ठीक निकले । सर्वथा मिथ्या कोई न जान पड़ा। अगर प्रत्येक मत जिस प्रकार अपने दृष्टिकोण से अपने मत का प्रतिपादन करता है उसी प्रकार दूसरे दृष्टिकोण से विरोधी मत पर भी विचार करे तो उनमें किसी प्रकार का झगड़ा खड़ा न हो । दोनों में एकवाक्यता हो जाय । अपेक्षावाद का यह सिद्धान्त बड़े ही सरल ढंग से सभी मत भेदों का अन्त कर देता है।