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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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जिस विचार में अर्थ की प्रधानता हो वह अर्थ नय और जिस में शब्द की प्रधानता हो वह शब्द नय है । ऋजुमूत्र तक पहले चार अर्थ नय हैं और बाकी तीन शब्द नय।
इसी प्रकार ज्ञान नय और क्रिया नय ये दो विभाग भी हो सकते हैं । ऊपर लिखी विचारसरणियों से पदार्थ के वास्तविक स्वरूप को जानना ज्ञान नय है और उसे अपने जीवन में उतारना क्रिया नय । भिन्न भिन्न अपेक्षाओं से नयों के और भी अनेक तरह से भेद किए जा सकते हैं। इनका विस्तार सातवें बोल संग्रह बोल नं. ५६२ में दिया गया है।
स्याहाद . स्याद्वाद का सिद्धान्त जैन दर्शन की सब से बड़ी विशेषता है । इसी को अनेकान्तवाद या सप्तभङ्गीवाद कहा जाता है। वास्तव में देखा जाय तो स्याद्वाद जैन दर्शन की आत्मा है । इसी के द्वारा जैन दर्शन संसार के सभी झगड़ों को निपटाने का दावा कर सकता है।
दुनियाँ के सभी झगड़ों का कारण एकान्तवाद है। दूसरे पर क्रोध करते समय या दूसरे को अपराधी ठहराते समय हमारी दृष्टि प्रायः उस व्यक्ति के दोषों पर ही जाती है । इसी प्रकार जो वस्तु हमें प्रिय मालूम होती है उसमें गुण ही गुण दिखाई पड़ते हैं । इस तरह द्वेष और राग के कारण हम अच्छे को बुरा और बुरे को अच्छा समझने लगते हैं । फलस्वरूप सत्य से वश्चित हो जाते हैं और उत्तरोत्तर असत्य की ओर बढ़ते चले जाते हैं। धीरे धीरे एकान्त धारणा के इतने गुलाम बन जाते हैं कि विरोधी विचारों के सुनने से दुःख होता है।