________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
१३५
विरुद्ध उतने ही बल वाला अनुमान बनाया जा सकता है । शब्द अनित्य है क्योंकि अनित्य धर्मों वाला है। दोनों अनुमान समान शक्ति वाले हैं इसलिए एक भी साध्यसिद्धि में समर्थ नहीं है । 'क्योंकि नित्य धर्मों वाला है' यह हेतु अस्पष्ट भी है। शब्द में दोनों धर्म हो सकते हैं। ऐसी दशा में एक तरह के धर्मों को लेकर नित्यत्व या अनित्यत्व की सिद्धि करना प्रकरणसम है। साध्यसम-जहाँ हेतु साध्य सरीखा अर्थात् स्वयं असिद्ध हो । जैन तर्कशास्त्र में इसे असिद्ध हेत्वाभास कहा गया है जैसे शब्द नित्य है क्योकि अजन्य है। यहाँ नित्यत्व की तरह अजन्यत्व भी असिद्ध है। कालातीत या कालात्ययापदिष्ट उसे कहते हैं जिस हेतु का साध्य प्रत्यक्ष अनुमान आदि प्रबल प्रमाण से बाधित हो । जैसे अग्नि ठण्डी है क्योंकि चमकती है, जैसे जल । यहाँ अग्नि की शीतलता प्रत्यक्षबाधित है।
उपमान-प्रमाण का तीसरा साधन उपमान है। इस में सादृश्यादि से दूसरी वस्तु का ज्ञान होता है जैसे घर में पड़े हुए घड़े को जानकर उसी आकारवाले दूसरी जगह पडे हुए पदार्थ को भी घड़ा समझना । उपमान को वैशेषिक तथा कुछ अन्य दर्शनकारों ने प्रमाण नहीं माना है । जैन दर्शन में इसे प्रत्यभिज्ञान कहते हैं किन्तु परिभाषा में कुछ भेद है।
शब्द- प्राप्त अर्थात् वस्तु को यथार्थ जानने वाले और उत्कृष्ट चारित्र रखने वाले व्यक्ति का हित की दृष्टि से दिया गया उपदेश । यह दो प्रकार का है एक तो दृष्टार्थ जो इन्द्रियों से जानने योग्य बातें बताता है और जो मनुष्यों को भी हो सकता है। दूसरा अदृष्टार्थ, जो इन्द्रियों से न जानने योग्य बातें स्वर्ग, नरक, मोक्ष इत्यादि बताता है और जो ईश्वर का उपदेश है।