________________
१२०
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
है। दूसरी बात यह है कि जगत् में दुःख बहुत है, सच पूछिए तो दुःख ही दुःख है। यह दुःख कर्म के बन्धन से होता है । कर्म के छूटने से बन्धन छूट जाता है और दुःख दूर हो जाता है । सुख शान्ति मिल जाती है। यही निर्वाण है । जीवन काल में यह हो सकता है। पर निर्वाण पाने के बाद जब शरीर छूट जाता है तब क्या होता है ? पुनर्जन्म तो हो नहीं सकता। तो क्या आत्मा का सर्वथा नाश हो जाता है, अस्तित्व मिट जाता है ? या आत्मा कहीं परम अलौकिक अनन्त सुख और शान्ति से रहता है ? इस जटिल समस्या का उत्तर बौद्ध दर्शन में नहीं है। स्वयं बुद्ध ने कोई उत्तर नहीं दिया । संजुत्तनिकाय में वच्छगोत्त बुद्ध से पूछता है कि मरने के बाद आत्मा रहता है या नहीं ? पर बुद्ध कोई उत्तर नहीं देते । मज्झिमनिकाय में प्रधान शिष्य आनन्द भी इस प्रश्न का उत्तर चाहता है; यह जानना चाहता है कि मरने के बाद बुद्ध का क्या होता है ? पर बुद्ध से उत्तर मिलता है कि आनन्द ! इन बातों की शिक्षा देने के लिए मैंने शिष्यों को नहीं बुलाया है। अस्तु । यहीमानना पड़ेगा कि जैसे बुद्ध ने जगत् की उत्पत्ति के प्रश्न को प्रश्नरूप में ही छोड़ दिया वैसे ही निर्वाण के बाद आत्मा के अस्तित्व को भी प्रश्न रूप में ही रहने दिया । उनका निजी विचार कुछ रहा हो या न रहा हो पर वे इस श्रेणी के तत्त्वज्ञान को अपने कार्य क्षेत्र से बाहर मानते थे। उनका भाव कुछ ऐसा था कि मेरे बताए मार्ग पर चल कर निर्वाण प्राप्त करलो, फिर अन्तिम शरीर त्यागने के बाद क्या होगा ? इसकी परवाह मत करो।
बुद्ध के इस ठण्डे भाव से दार्शनिकों की जिज्ञासा न बुझी। बौद्ध दार्शनिक इस प्रश्न को बार बार उठाते हैं। संजुत्तनिकाय