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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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केशिश्रमण- क्या तुम्हें यह भी मालूम है कि किस परिषद् में कैसी दण्डनीति है ? राजा- हाँ भगवन् ! (१) क्षत्रिय परिषद् में अपराध करने वाला हाथ, पैर या जीवन से हाथ धो बैठता है। (२) गृहपति परिषद् का अपराधी बाँधकर आग में डाल दिया जाता है। (३) ब्राह्मण परिषद् का अपराधी उपालम्भ पूर्वक कुंडी या शुनक (कुत्ता) का निशान लगा कर देश निकाला दे दिया जाता है । (४) ऋषि परिषद् के अपराधी को केवल प्रेम-पूर्वक उपालम्भ दिया जाता है। केशिश्रमण- इस तरह की दण्डनीति से परिचित होकर भी तुम मुझ से ऐसा प्रश्न क्यों पूछते हो ?
.. इस तरह समझाने पर राजा परदेशी भगवान् केशिश्रमण का उपासक बन गया। उसने श्रावक के व्रत अङ्गीकार किए
और न्यायपूर्वक प्रजा का पालन करने लगा। परदेशी राजा अन्तिम समय में शुभ भावों से काल करके सौधर्म देवलोक के सूर्याभ नामक विमान में उत्पन्न हुए। वहाँ से चब कर महाविदेह क्षेत्र से सिद्ध होंगे। (रायपमेणी सूत्र उत्तरार्द्ध) . ४९७-छः दशन .
भारतवर्ष का प्राचीन समय आध्यात्मिकता के साथ साथ विचार स्वातन्त्र्य का भी प्रधान युग था। युक्ति और अनुभव के आधार पर प्रत्येक व्यक्ति को अपने स्वतन्त्र विचार प्रकट करने का पूर्ण अधिकार था। ऐसे समय में बहुत सी आध्या त्मिक विचारधाराओं का चल पड़ना स्वाभाविक ही था।
'सर्वदर्शन संग्रह' में माध्वाचार्य ने सोलह दर्शन दिए हैं। 'षड्दर्शन समुच्चय में हरिभद्रसरिने छः दर्शन बताए हैं-बौद्ध