________________
११४
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
से मैं मानता हूँ कि शरीर ही जीव है। केशिश्रमण- राजन् ! चमड़े की मशक में हवा भर कर तोलो, फिर हवा निकाल कर तोलो। क्या वजन में फरक पड़ेगा ? परदेशी- नहीं । दोनों दशाओं में वजन एक सरीखा ही रहेगा। केशिश्रमण- जीव तो हवा से भी सूक्ष्म है क्योंकि हवा गुरुलघु है और जीव अगुरुलघु है । फिर उसके कारण वजन में फरक कैसे पड़ सकता है ? ‘राजा- भगवन् ! 'जीव है या नहीं यह देखने के लिए मैंने
एक चोर को चारों ओर से जाँचा, पड़ताला । पर जीव कहीं दिखाई न पड़ा । खड़ा करके सीधा चीर डाला तब भी जीव दिखाई न दिया । काट २ कर बहुत से छोटे २ टुकड़े कर डाले, फिर भी जीव कहीं दिखाई न पड़ा । इससे मेरा विश्वास है कि जीव नाम की कोई वस्तु नहीं है। केशिश्रमण- राजन् ! तुम तो उस लकड़हारे से भी अधिक मूर्ख जान पड़ते हो, जो लकड़ी से आग निकालने के लिए उसके टुकड़े २ कर डालता है फिर भी आग न मिलने पर निराश हो जाता है। जीव शरीर के किसी खास अवयव में नहीं है, वह तो सारे शरीर में व्याप्त है । शरीर की प्रत्येक क्रिया उसी के कारण से होती है। राजा ने कहा- भगवन् ! भरी सभा में आप मुझे मूर्ख कहते हैं, क्या यह ठीक है? केशिश्रमण- राजन् ! क्या तुम जानते हो, परिषद् (सभा) कितनी तरह की होती है ? राजा- हाँ भगवन् ! परिषद् चार तरह की होती है। क्षत्रिय परिषद्, गृहपति परिषद्, ब्राह्मण परिषद् और ऋषि परिषद् ।