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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
परदेशी- हाँ भगवन् ! निकलेगा। केशिश्रमण-राजन् ! जिस तरह बिल्कुल छिद्र न होने पर भी शब्द कोठरी से बाहर निकल जाता है उसी तरह जीव भी कुम्भी से बाहर निकल सकता है। क्योंकि जीव तो हवा से भी सूक्ष्म है। ( ४ ) परदेशी- भगवन् ! जीव और शरीर को अभिन्न सिद्ध करने के लिए मैं एक और उदाहरण देता हूँ__एक चोर को मारकर मैंने लोहे की कुम्भी में डाल दिया। ऊपर मजबूत ढक्कन लगा दिया। सीसे से बन्द कर दिया। चारों तरफ पहरा बैठा दिया। कुछ दिनों बाद उसे खोल कर देखा तो कुम्भी कीड़ों से भरी हुई थी। कुम्भी में कहीं छिद्र न था, फिर इतने कीड़े कहाँ से घुस गए ? मैं तो यह समझता हूँ, कि ये सभी एक ही शरीर के अंश थे । चोर के शरीर से ही वे सब बन गए । उनके जीव कहीं बाहर से नहीं आए। केशिश्रमण-- राजन् ! तुमने अग्नि में तपा हुआ लोहे का गोला देखा होगा, अग्नि उसके प्रत्येक अंश में प्रविष्ट हो जाती है। गोले में कहीं छिद्र न होने पर भी जिस तरह अग्नि घुस जाती है, इसी तरह जीव भी बिना छिद्र के स्थान में घुस सकता है।
वह तो अग्नि से भी मूक्ष्म है। (५) राजा- भगवन् ! धनुर्विद्या जानने वाला तरुण पुरुष एक ही साथ पाँच बाण फेंक सकता है । वही पुरुष बालक अवस्था में इतना होशियार नहीं होता । इससे मालूम पड़ता है कि जीव और शरीर एक हैं, इसीलिए शरीर वृद्धि के साथ उसकी चतुरता जो कि जीव का धर्म है, बढ़ती जाती है। केशिश्रमण-राजन् ! नया धनुष और नई डोरी लेकर वह पुरुष