________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
में बैठा हुआ पुरुष तुम्हें बुलावे और थोड़ी देर वहाँ बैठ कर बात चीत करने के लिए कहे, तो क्या उसकी बात मान जाओगे? राजा- नहीं भगवन् ! उस समय मैं उस पुरुष से बात चीत करने के लिए अपवित्र स्थान में नहीं जाऊँगा। केशिश्रमण- राजन् ! इसी तरह तुम्हारी दादी यहाँ आकर तुम्हें समझाने की इच्छा रहते हुए भी मनुष्यलोक की दुर्गन्धि
आदि कारणों से यहाँ आने में असमर्थ है। (३) परदेशी- भगवन् ! एक और उदाहरण सुनिए । एक समय मैं अपनी राजसभा में बैठा हुआ था। मेरे नगर रक्षक एक चोर पकड़ कर लाए । मैंने उसे जीवित ही लोहे की कुम्भी में डाल दिया । ऊपर लोहे का मजबूत ढक्कन लगा दिया गया। सीसा पिघला कर उसे चारों तरफ से ऐसा बन्द कर दिया गया जिससे वायु सञ्चार भी न हो सके । कुम्भी में कोई छिद्र बाकी न था। मेरे सिपाही उसके चारों तरफ पहरा देने लगे।
कुछ दिनों बाद मैंने कुम्भी को खुलवाया तो चोर मरा हुआ था । जीव और शरीर यदि अलग अलग होते तो जीव बाहर कैसे निकल जाता ? कुम्भी में राई जितना भी छिद्र न था। इसलिए जीव के बाहर निकलने की कल्पना ही नहीं की जा सकती । हाँ, शरीर के विकृत होने से वह भी नहीं रहा । इसलिए शरीर और जीव एक ही हैं। केशिश्रमण-परदेशी ! यदि पर्वत की चट्टान सरीखी एक कोठरी हो । चारों ओर से लिपी हुई हो । दरवाजे अच्छी तरह से बन्द हों । कहीं से हवा घुसने के लिए भी छिद्र न हो । उसमें बैठा हुआ कोई पुरुष जोर जोर से भेरी बजाए तो शब्द बाहर निकलेगा या नहीं ?