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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
९९ वाला साधु ग्रासैषणा के अकारण दोष का भागी होता है। शास्त्रों में आहार के लिए छः कारण बताए गए हैं(१) वेदना- क्षुधावेदनीय की शान्ति के लिए। (२) वैयाऋत्य- अपने से बड़े प्राचार्यादि की सेवा के लिए। (३ ( ईर्यापथ- मार्गादि की शुद्धि के लिए। (४) संयमार्थ- प्रेक्षादि संयम की रक्षा के लिए। (५) प्राणप्रत्ययार्थ- अपने प्राणों की रक्षा के लिए। (६) धर्मचिन्तार्थ- शास्त्र के पठन पाठन आदि धर्म का चिन्तन
करने के लिए। ४८५- साधु द्वारा आहार त्यगने के छः कारण ___ नीचे लिखे छः कारण उपस्थित होने पर साधु आहार करना छोड़ दे। शिष्य वगैरह को शासन का भार संभला कर संलेखना द्वारा शुद्ध होकर यावज्जीव आहार का त्याग कर दे । (१) आतङ्क- रोग ग्रस्त होने पर । (२) उपसर्ग- राजा, स्वजन देव, तिर्यश्च आदि द्वारा उपसर्ग उपस्थित करने पर। (३) ब्रह्मचर्यगुप्ति- ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए | (४) माणिदयार्थ-प्राणी भूत जीव और सत्त्वों की रक्षा के लिए। (५) तपोहेतु- तप करने के लिए। (६) संलेखना- अन्तिम समय संथारा करने के लिए।
(पिगडनियुक्ति गाथा ६३५-६६८) (उत्ताध्ययन अध्ययन २६) ४८६-छः प्रकार का भोजन-
पणाम यहाँ परिणाम का अर्थ है स्वभाव या परिपाक । (१) भोजन मनोज्ञ अर्थात् अभिलाषा योग्य होता है। (२) भोजन माधुर्यादि रस सहित होता है।