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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
(२) ऊनोदरी - जिसका जितना आहार है उससे कम हार करना ऊनोदरी तप है। आहार की तरह आवश्यक उपकरणों से कम उपकरण रखना भी ऊनोदरी तप है। आहार एवं उपकरणों में कमी करना द्रव्य ऊनोदरी है। क्रोधादि का त्याग भाव ऊनोदरी है ।
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(३) भिक्षाचर्या - विविध अभिग्रह लेकर भिक्षा का संकोच करते हुए विचरना भिक्षाचर्या तप है । अभिग्रह पूर्वक भिक्षा करने से वृत्ति का संकोच होता है। इसलिये इसे 'वृत्ति संक्षेप' भी कहते हैं । उबवाई सूत्र १६ में इस तप का वर्णन करते हुए भिक्षा के अनेक अभिग्रहों का वर्णन है ।
( ४ ) रस परित्याग - विकार जनक दूध दही घी आदि विगयों का तथा प्रणीत (स्निग्ध और गरिष्ठ) खान पान की वस्तुओं का त्याग करना रस परित्याग है ।
(५) कायाक्लेश- शास्त्र सम्मत रीति से शरीर को क्लेश पहुंचाना कायाक्लेश है। उग्र वीरासनादि आसनों का सेवन करना, लोच करना, शरीर की शोभा शुश्रूषा का त्याग करना आदि कायक्लेश के अनेक प्रकार हैं।
(६) प्रतिसंलीनता — प्रतिसंलीनता का अर्थ है गोपन करना इसके चार भेद हैं- इन्द्रिय प्रतिसंलीनता, कषाय प्रतिसंलीनता योग प्रतिसंलीनता, विविक्त शय्यासनता ।
शुभाशुभ विषयों में राग द्वेष त्याग कर इन्द्रियों को वश में करना इन्द्रिय प्रतिसंलीनता है ।
कषायों का उदय न होने देना और उदय में आई हुई कषायों को विफल करना कषाय प्रतिसंलीनता है ।