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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
प्राप्त करने के बाद १७६ आवलियों से आहार पर्याप्ति पूर्ण होती है। शरीर पर्याप्ति २०८ आवलियों के बाद । इसी प्रकार आगे ३२-३२ आवलियाँ बढ़ाते जाना चाहिए ।
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इन छ: पर्याप्तियों में से एकेन्द्रिय जीव के भाषा और मनः पर्याप्ति के सिवा चार पर्याप्तियां होती हैं। विकलेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय के मनःपर्याप्ति के सिवा पांच पर्याप्तियां होती हैं और संज्ञी पंचेन्द्रिय के छहों पर्याप्तियां होती हैं ।
(प्रज्ञाना पद १ सूत्र १२ ) (भगवती शतक ३ उद्देशा १ ) (प्रवचनसारोद्वार गाथा १३१७- १३१८) (कर्मग्रन्थ १ गाथा ४६ )
४७३ – आयु बन्ध छः प्रकार का
आगामी भव में उत्पन्न होने के लिए जाति, गति, आयु वगैरह का बाँधना आयु बन्ध कहा जाता है। इसके छः भेद हैं( १ ) जाति नामनिधत्तायु — एकेन्द्रियादि जाति नाम कर्म साथ निषेक को प्राप्त आयु जातिनामनिधत्तायु है ।
निषेक- फलभोग के लिये होने वाली कर्म पुद्गलों की रचना विशेष को निषेक कहते हैं ।
(२) गतिनामनिधत्तायु— नरकादि गति नामकर्म के साथ निषेक को प्राप्त आयु गतिनामनिधत्तायु है ।
(३) स्थिति नामनिधत्तायु — आयु कर्म द्वारा जीव का विशिष्ट भव में रहना स्थिति है । स्थिति रूप परिणाम के साथ निषेक को प्राप्त आयु स्थितिनामनिधत्तायु है । अथवा स्थिति नामकर्म के साथ निषेक को प्राप्त आयु स्थितिनामनिधत्तायु है ।
यहाँ स्थिति, प्रदेश और अनुभाग जाति, गति और अवगाहना के ही कहे गये हैं । जाति गति आदि नाम कर्म के साथ सम्बद्ध होने से स्थिति प्रदेश आदि भी नाम कर्म रूप ही हैं ।