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ने तत्वज्ञान और दार्शनिक विचार-संसार में नवीन दृष्टिकोण की सृष्टि की उनके कर्मवाद ने मानव जगत् को मानसिक दासता और आध्यात्मिक परत न्त्रता से मुक्ति दिलाई तथा पुरुषार्थ एवं स्वावलम्बन का पुनीत पाठ पढ़ाया उनके साम्यवाद के सिद्धांत ने जांति पांति के भेद को मिटा कर मानव मात्र की एक रूपता का आदर्श उपस्थित किया । इसी साम्यवाद ने स्त्रियों की पुनः सन्मान पूर्ण सामाजिक प्रतिष्ठा की। भगवान के साम्य सिद्धांत ने जाति भेद, लिंगभेद, वर्गभेद और अमीर-गरीब के भेद को निर्मूल किया और अपने शासन में गुणपूजा को महत्व दिया । "गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिंग न च वयः" कालिदास की यह उक्ति भगवान महावीर के धर्मशासन में यथार्थ रूप से चरितार्थ होती है। भगवान महावीर ने अपने संघ में नारी को भी पुरुष के समान समानाधिकार देकर स्त्रीस्वातन्त्र्य की प्रतिष्ठा की और उसे महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया । इसी तरह अपने श्रमण संघ में चाण्डाल जाति के व्यक्ति को भी मुनि दीक्षा देकर गुरुपद का अधिकारी बनाया । "सक्खं खुदीसइ तवो विसेसो न दीसइ जाइविसेस कोवि" अर्थात् "तप और संयम का वैशिष्ट्य है, जाति की कोई महत्ता नहीं" यह कह कर चाण्डाल पुत्र हरिकेशी को भी मुनि संघ में स्थान दिया और उसे ब्राह्मणों के यज्ञवाडे में भेज कर उनको भी पूजनीय वना दिया, यह भगवान महावोर के सामाजिक साम्य का भव्य उदाहरणा है ।
भगवान् महावीर ने अहिंसा और समता के आध्यात्मिक सिद्धान्तों को सामाजिक क्षेत्रमें भी सफलता पूर्वक प्रयुक्त किये। जैसाकि पं. सुखलालजी ने लिखा है:--
"महावीर ने तत्कालीन प्रबल बहुमत की अन्याय्य मान्यता के विरुद्ध सक्रिय कदम उठाया और मेंतार्य तथा हरिकेशी जैसे सबसे निकृष्ट गिने जाने वाले अस्पृश्यों को अपने धर्मसंघ में समान स्थान दिलाने का द्वार खोल दिया । इतना ही नहीं बल्कि हरिकेशी जैसे तपस्त्री आध्यात्मिक चाण्डाल को छुआछूत में नखशिख डूबे हुए जात्यभिमानी ब्राह्मणों के धर्मवीरों में भेजकर गाँधीजी के द्वारा समर्थित मन्दिर में श्य प्रवेश जैसे विचार के धर्म का समर्थन भी महावीरनुयायी जैन परम्परा ने किया है । यज्ञयज्ञादि में अनिवार्य मानी जाने वाली पशु आदि प्रारंगी हिंसा से केवल
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