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________________ जैन गौरव-स्मृतियां 2: .(E) संवेगी सम्प्रदायः- ईसा की सतरहवीं में श्वेताम्बरों में जड़वाद को बहुत अधिक प्रचार हो गया था सर्वत्र शिथिलता और निरंकुशता का राज्ये जमा हुआ था। इसे दूर करने के लिए तथा साधु जीवन की उच्च भावनाओं को पुनः प्रचलित करने के लिए आनन्द धन, सत्य •विजयजी, विनयविजयजी और यशो विजयजी आदि प्रधान पुरुपों ने बहुत प्रयत्न किये । इन आचार्यों का अनुसरण करने वालों ने केशरिया वस्त्र धारण किये और वे संवेगी कहलाये। संवेगी सम्प्रदाय अपनी आदर्श जोवन-चर्या के द्वारा अत्यन्त माननीय है। . ... ... .. ___. इसके अतिरिक्त अनेक गच्छों के नाम उपलब्ध होते हैं। इस श्वेताम्बर सम्प्रदाय में सबसे अधिक महत्व पूर्ण भेद विक्रम की सोलहवी सदी में हुआ । इस समय में क्रान्तिकार लोकाशाह ने मूर्ति पूजा का विरोध किया और इसके फल स्वः रूप स्थानकवासी सम्प्रदाय का आविर्भाव हुआ। स्थानकवासी सम्प्रदाय ... ......... ईसाई धर्म में जो स्थान मार्टिन ल्यूथर का है वही स्थान श्वेताम्बर सम्प्रदाय में लोकाशाह का है। रोमन कैथोलिक धर्म में रही हुई मूर्ति पूजा का मार्टिन ल्यूथरः विरोध किया और प्रोटेस्टेण्ट परम्परा की स्थापना की। लोकाशाह ने भी श्वेता म्बर परम्परा में चैत्यों और मन्दिरों के कारण आई हुई शिथिलता को विरोध किया और 'मूर्ति पूजा आगमसम्मत नही है' यह उद्घोषणा की। .. ... ... ........ स्थानकवासी जैन समाज के अथवा अमूर्तिपूजक जैनों के प्रेरक लोकाशाह.. का जन्म विक्रम संवत् १४८२ के लगभग हुआ था और इनके द्वारा की गई धर्म क्रांति का प्रारम्भ वि० सं० १५३० के लग भग हुआ। लोकाशाह का मूलम्थान: सिरोही से ७ मील दूर स्थित अरहदवाडा है परन्तु वे अहमदाबाद में आकर बस गये थे। अहमदाबाद के समाज में उनकी बहुत प्रतिष्ठा थी। वे वहाँ के प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित पुरुप थे इनके अनर बहुत सुन्दर थे। उस समय अहमदाबाद में ज्ञानजी:: नामक साधुजी के भण्डार की कुछ प्रतियाँ जीर्ण-शीर्ण होगई थी अतः उनकी दूसरी नकल करने के लिए ज्ञानजी साधु ने लोकाशाह को दी। प्रारम्भ में दशवकालिक : सत्र की प्रति उन्हें मिली । उसकी प्रथम गाथा में ही धर्म का स्वरूप बताया गया : उसे देख कर उन्हें धर्म के सच्चे स्वरूप की प्रतीति हुई। उन्होंने उसकाल में पालन किये जाते हुए धर्म का स्वरूप भी देवा । दोनों में उन्हें आकाश:पाताल, का... अन्तर दिखाई दिया।"कहां तो शास्त्र वर्णित धर्माचार का स्वरूप और कहां आज थे, साधुओं द्वारा पाला जाता हा प्राचार" इस विचार ने उनके हदय में गन्ति मचा दी। उन्होंने अन्य सूत्रों का वाचन. मनन वीर चिन्तन किया इसके फलस्वरूप उन्होंने निर्णय किया कि 'शान्त्रों में मृर्तिपूजा करने का विधानमा भाध मानी जो कार्य कर रहे हैं। वह सत्य मावाचार से विपरीत । स्थान
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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