________________
:
५४०
एक
冬社冬
*****
जैन- गौरव स्मृतिय
और जिनदत्तसूरि ( दादा ) इस गच्छ के परम प्रभावक पुरुष हुए। इस गच्छे में लगभग १०० साधु और ३०० साध्वियाँ हैं ।
泰業業遠業畫
( २ ) तपागच्छ :——यह गच्छ श्वेताम्बर सम्प्रदाय में सबसे अधिक महत्व वाला, है । तपागच्छ की उत्पत्ति उद्योतनसूरि के बाद हुई है । उद्योतनसूरि ने अपने शिष्य सर्वदेव को वटवृक्ष के नीचे सूरि पढ़ दिया इससे यह गच्छा वटव कहलाया । इसके बाद इस गच्छ में जगचन्द्रसूरि हुए । इन्होंने १२८५ ( वि. सं. ) में उग्र तपश्चर्या की इससे मेवाड़ के महाराणा ने इन्हें 'तपा' की उपाधि प्रदान की । इस पर से यह गच्छ तपा गच्छ कहलाया । इस गच्छ में लगभग ४०० साधु और १२०० साध्वियाँ हैं । यतियों को संख्या भी बहुत अधिक है । जगबन्द्रसूर के शिष्य विजयचन्द्रसूरि ने वृद्ध पोशालिंग तपागच्छ की स्थापना की। प्रसिद्ध कर्म ग्रन्थकार देवेन्द्रसूरि जगच्चन्द्रसूरि, के पट्टधर हुए।
(३) उपकेशगच्छ :इल गच्छ की उत्पत्ति का सम्बन्ध भगवान पार्श्वनाथ के साथ माना जाता है । प्रसिद्ध आचार्य रत्नप्रभसूरि जो ओसवंश के यदि संस्थापक हैं इसी गच्छ के थे ।
-----
( ४ ) पौमिक गच्छ :-- -सं. १९५१ में चन्द्रप्रभसूरि ने क्रिया काण्ड सम्बन्धी भेद के कारण इस गच्छ की स्थापना की। कहा जाता है कि इन्होंने महानिशीथ सूत्र को शास्त्रप्रन्थ मानने का प्रतिपेध किया । सुभतसिंह ने इस को नव जीवन दिया तब से यह सार्धं ( साधु ) पौर्णमिक कहलाया ।
.
(५) अंचलगच्छ या विधिपक्षः- आर्य रक्षित सूरि ने सं० १९६६ में इस गच्छ की स्थापना की। मुख वस्त्रिका के स्थान पर अञ्चल (वस्त्र का किनारा) का उपयोग किया जाने से यह गच्छ अंचलगच्छ कहा जाता है । इनमें अभी १५-२२ साधु और ३०-४० साध्वियां है। इस गच्छं के श्रीपूज्यों का बहुत मान है।
(६) आगमिक गच्छः - इस गच्छ के उत्पादक शील गुण और देव भद्र थे । ई० सन् ११६३ में इसकी स्थापना हुई ये क्षेत्र देवता की पूजा नहीं करते ।
(७) पार्श्व चन्द्र गच्छ:- यह तपागच्छ की शाखा है । सं० १५७२ में पार्श्व चन्द्र तपागच्छ से अलग हुए । इन्हों ने नियुक्त, भाष्य चूर्णी और छेद ग्रन्थों को प्रमाणभूत मानने से इन्कार किया । यति अनेक हैं इनके श्री पूज्य की गादी बीका नेर में हैं ।.
(5) कडुआ मतः- आगमी गच्छ में से यह मत निकला। इस मत की मान्यता यह थी कि वर्तमान काल में सच्च साधु नहीं दिखाई देते । कडुआ नामक गृहस्थ ने आगमि गच्छ के हरिकीर्ति से शिक्षा पाकर इस मत का प्रचार किया था । श्रावक के प में घूम २ कर इसने अपने अनुयायी बनाये थे । सं० १५६२/ या १५६४ में इसकी संस्थापना हुई ऐसा उल्लेख मिलता है ।