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________________ SE* जैन-गौरव-स्मृतियाँ यार __ की इच्छा प्रदर्शित की गई थी। सचमुच यह एक अद्भुत घटना थी कि मुगलसना ने एक जैन को बंगाल का दीवान बनाना चाहा। .. जब यह फरमान मुर्शिदकुलखाँ के पास पहुंचा तो उसे इसमें जगत् सेठ का पडयंत्र मालूम हुआ । पर जब ये दोनों मित्र मिले तब सेठ माणकचन्द ने कहा-मुर्शिदकुलीखा और माणकचन्द के वीच भेद कहाँ है ? मेरे लिए बंगाल की सूवेगिरी में आकर्षण ही क्या है इस सारी मुगल सल्तनत में ऐसी चीज ही क्या है जो सोना, मोहर और रुपये से न खरीदी जा सके ! गंगा के किनारे जब तक मेरा महिमापुर बसा हुआ है और मेरा टकसाल चालू है वहाँ तक मेरे वैभव, सत्ता और व्यापार के सम्मुख कौन ऊँची ऊँगली उठा सकता है । फर्रुखशियर स्वयं एक दिन याचक की तरह रुपये की भीख मांगने इसी सेठ के आँगन में उपस्थित हुआ था। मेरा विश्वास है कि हमारे धन से ही यह राजमुकुट खरीदा गया है । मैं वादशाह को लिख देता हूँ कि मुझे मिली हुई सूवागिरी मैं पुनः मुर्शिदकुलिखां को सौंपता हूँ क्योंकि मैं उन्हें अपने से अधिक योग्य मानता हूँ।" मुर्शिदकुलिखां ने पूछा-अंग्रेजों के परगने सौंपने के फरमान का क्या करना चाहिए १ जगन् सेठ ने कहा-"इस विषय में जरा बुद्धिमानी से काम लेना चाहिए । अंग्रेज व्यापारी हैं, कूटनीतिज्ञ है । और लड़ाकू हैं अतः उनके साथ उच्छ, खल व्यवहार करने का परिणाम अच्छा न होगा। इन परगनों की मालिकी तो इन्हें नहीं दी जा सकती परन्तु अंग्रेज व्यापारी विना कस्टम ट्रेक्स के यहाँ व्यापार कर सकें यह व्यवस्था करनी पड़ेगी। इन सबसे जगत् सेठ का बंगाल के राजनैतिक वातावरण में कितना प्रभाव था यह स्पष्ट प्रतीत होता है। समस्त बंगाल, बिहार और उड़ीसा का महसूल सेट माणकचंद के यहाँ इकट्टा होता था और इन प्रदेशों में जगत सेठ की टकसाल में बने हुए रुपये ही उपयोग में आते थे। तत्कालीन मुसलमान लेखकों ने लिखा है कि जगत सेट के यहाँ इतना सोना चांदी था कि अगर वह चाहता तो गंगाजी के प्रवाह को रोकने के लिए सोने और चांदी का पुल बना सकता था। बंगाल के अन्दर जमा हुई . महसुल की रकम दिल्ली के खजाने में भरने के लिए जगत सेट के हाथ की एक हुण्डी पर्याप्त थी। मुतखर्शन नामक ग्रन्थ का लेखक लिखता है कि इस ...जमाने में सारे हिन्दुस्तान में जगत् सेठ की बराबरी का कोई व्यापारी और सेठ नहीं था।
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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