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* जैन-गौरव-स्मृतियाँ
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सिद्धराज जयसिंह ने इन्हें 'कवि कटारमल्ल' की उपाधि प्रदान की थी। विद्वानों का अनुमान है कि इन्होंने सौ प्रबन्धों की रकी ना अतः 'प्रबन्धशतकर्ता' कहलाये। श्री जिनविजय जी ने लिखा है कि "प्रवन्धशतं द्वादशरूपक नाटकादिस्वरूपज्ञापकं' इस उल्लेख से यह मालूम होता है कि 'प्रबन्धशत' नामक बारह रूपक और नाटक आदि के स्वरूप को प्रकट करने वाला ग्रन्थ उन्होंने रचा था।
इनके ग्रन्थ इस प्रकार है:- द्रव्यालङ्कार स्वोपज्ञ वृत्ति युक्त, व्यतिरेक द्वात्रिंशिका, सिद्धहेम न्यास (५३००० श्लोक प्रमाण ), सत्य हरिश्चन्द्र नाटक, निर्भयभीम व्यायोग, राघवाभ्युदय, यदुविलास, रघुविलास. नलविलास, मल्लिकामकरन्द, रोहणी मृगाङ्ग, बनमाला, सुधाकलशकोश, कौमुदीमित्रानंद, नाट्यदर्पण सटीक कुमारविहार शतक, युगादिदेव द्वात्रिंक, प्रासाद द्वात्रिंशिका, मुनीसुव्रत द्वात्रिंशिका, आदिदेवस्तव, नाभिस्तव, सोलहन्तवन ।
- हमचन्द्राचार्य के शिष्यमण्डल में रामचन्द्रसुरि के अतिरिक्त गुणचन्द्र गणी, महेन्द्रसरि, वर्धमान गणी, देवचन्द्र मुनी, यशश्चन्द्र, उपयचन्द्र, बालचन्द्र आदि अनेक विद्वान् शिष्य थे। गुरणचन्द्र गणी द्रव्यालंकार और नाट्यदर्पण की रचना में रामचन्द्रसूरि के सहयोगी रहे।
महेन्द्रसूरि ने अनेकार्थ संग्रहकोश पर 'अनेकार्थ करवाकर कौमुदी' टीका लिखी। वर्धमान गणी-ने कुमारविहार शतक पर व्याख्या और 'चन्द्रलेखा विजय' नाटक लिखा । वालचन्द्रगगि ने मानगुद्रा भंजन नाटक
और 'स्नातस्या' स्तुति लिखी । रामभद्र (देवमूरि संतानीय जयप्रभसरि के शिष्य ) ने इसी समय "प्रबुद्ध रोहिणेय" नाटक लिया।
राजा अजयपाल के जैनमंत्री यशःपाल ने 'मोहपराजय' नाटक लिया । आचार्ग मल्लवादी ने 'धर्मोत्तर टिप्पन' नामक दार्शनिक टीका ग्रन्थ लिखा । धारानगरी के अाम्रदेव के पुत्र नरपति ने 'नरपतिजय चर्चा' नामक शालग्रन्थ लिखा । प्रशुन्त सूरि ने वादधल नामक न ग्रन्थ लिया। जिनपति-सूरी इन्होंने प्रद्यन्नसूरि कृत 'वादस्थल का बल्डर करने के लिए 'प्रयोध्यवादस्थल लिग्या । तीर्यमाला, संवपट्टक वहट बत्ति पीर पंचालिनी विवरण अन्य भी लिन् ।