________________
ANS
जैन-गौरव-स्मृतियाँ
।
चैत्यवासियों का जोर था । जिनेश्वरमूरि ने राजा के सरस्वती भण्डार से: दशवैकालिकसूत्र निकाल कर उसे बताया कि साधु का सच्चा प्राचार ग्रह है। चैत्यवासियों का आचार शास्त्रानुकूल नहीं है । राजा ने 'खरतर' ( कठोर आचार फालने वाले ) की उपाधि उन्हें प्रदान की। तब से खरतरगच्छ की स्थापना हुई। प्रमालक्ष्म सदीक और पंचलिंगी प्रकरण इनके बनाये हुए प्रन्थ है। बुद्धिसागर सूरी:---
उक्त जिनेश्वरसूरी के सहोदर और सहदीक्षित घुद्धिसागरसूरी ने सं. १०८० में पञ्चग्रन्थी व्याकरण, संस्कृत-प्राकृत शब्दों की सिद्धि के लिए पधगद्य रूप ७००० श्लोक प्रमाण ग्रन्थ जाबालिपुर में रचा। नवांगी वृत्तिकार अभयदेव * उक्त जिनेश्वरसूरी के शिष्य अभय देवसूरी और जिनचन्द्रसूरी हुए। इन अभय देव सूरी ने आचारांग और सूत्रकृताङ्ग को छोड़कर शेष नौअंगसूत्रों पर संस्कृतभाषा में टीका लिखी। औपपातिक और प्रज्ञापना की टीका तथा संग्रहण गाथा १३३ रची । जिनेश्वर कृत पट्थानक पर भाष्य, हरिभद्र के पंचाशक पर वृत्ति और आराधककुलक नामक स्वतंत्र ग्रन्थ लिखे हैं। इनका स्वर्गवास ११३५ में कपड़वंज में हुआ। जिनचन्द्रसूरी ने "संवेगरंगशाला" की रचना की। चन्द्रप्रभसूरी
इन्होंने पौर्णमिक गच्छ की सं० ११४६ में स्थापना की। दर्शनशुद्धि और प्रमेय रत्नकोश नामक ग्रन्थ रचे । वार्धमानाचार्य-ये नवांगवृत्तिकार अभयदेव के शिष्य थे । इन्होंने मनोरमा चरित्र तथा आदिनाथ चरित्र की प्राकृत भाषा में और धर्मरत्नकरण्ड वृत्ति की रचना की। जिनवल्लभसूरिः-खरतरगच्छ के आचार्यों में इनका बहुत ऊँचा स्थान है। सिद्धराज जयसिंह के समय इन्हें प्राचार्य पद प्राप्त हुआ। अभयदेवसूरि के बाद ये उनके पट्टधर हुये । इनके ग्रन्थ इस प्रकार हैं:-- सूक्ष्मार्थ सिद्धान्तविचार, प्रागमिकवस्तुसार, पडशीति, पिण्डविशुद्धि प्रकरण, प्रतिक्रमण समाचारी, अष्टसप्ततिका, पापधविधिप्रकरण संघपट्टक, धर्मशिक्षा, द्वादश