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* जैन-गौरव-स्मृतियाँ
दोहन करके व्यवस्थित पद्धति से इस प्रौढ . दार्शनिक ग्रन्थ की रचना की। उन्होंने न्यायमुकुद चन्न नामक टीका लघीययय अन्ध पर लिखी है।
श्वनाम्बर परम्पंग में मिहसेन ने और दिगम्बर परम्परा में ममन्नभद्र ने जैन न्यागशाम्य का चीजारोपण किया था उसे श्वेताम्बरीय हरिभद्र, मल्लवादी और ग्राभयदेव ने तथा दिगन्त्रीय अकलंक, विद्यानन्द
और प्रभाचन्द्र ने पर्याप्त पल्लवित किया। यहाँ तक के समय को न्यायशास्त्र का विकास युग कहा जा सकता है। कवि धनपाल :
धनपाल, धाराधीश राजा मुज का अति माननीय राजपण्डित था। मुज के बाद राजा भोज ने इन्हें सिद्धसाराम्बत, कवीश्वर और कृर्चाल सरस्वती की उपाधि प्रदान की थी। ये कवि पहले वेदधर्मानुयायी थे परन्तु अपने भाई शोभनमुनि के संसर्ग से इन्होंने जैनधर्म स्वीकार कर लिया था और महेन्द्रसूति से गृहस्थ दीक्षा अंगीकार की थी। इन महाकवि धनपाल
उत्कृष्ट रचना तिलक मंजरी' नामक कथा है । कवि धनपाल ने स्वयं लिखा हैं कि-राजा भोज म्वयं सर्वशास्त्रों का ज्ञाता होने पर भी जैनशास्त्रों में वर्णित कथाओं को सुनने का अति चाव रखता था। अतः उस निर्मल-चरित्र वाले भोज के विनोद के लिए यह तिलकमंजरी नामक स्फुट और अद्भुत रस वाली कया रची। राजा भोज स्वयं विद्वान था। प्राचार्य हेमचन्द्र ने तिलक मंजरी के पद्यों को उनकोटि के मानकर अपने काव्यानुशासन के उदाहरगा के रूप में दिये हैं । कवि धनपाल ने 'पाइलच्छी नाम माला' नामक कोप. अन्य भी रचा है। আরিফুদি :
पाटन से धनपाल की प्रेरणा से धारा नगरी में आये थे। राजा भोज ने इनका मत्कार किया था। उसकी सभा के पण्डितों को जीतने से भोज ने उन्हें बादिवेताल' की उपाधि दी थी। इन्होंने उत्तराध्ययन मूत्र पर.. सुन्दर टीका लिया जो बाद अटीका' के नाम से प्रसिद्ध है। जिनेश्वरमरि :---
ये वर्धमानरि के शिष्य थे । पादन में दुलंग राजा के समय में. kkkkkkkk