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- जैन गौरव-स्मृतियो Ta
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गया है। दूसरे काण्ड में पाँच ज्ञानों की चर्चा की गई है। यह ज्ञान-विचा रणा विशुद्ध तर्क के आधार पर की गई है। ... सन्मति तर्क में नयवाद के निरूपण के द्वारा आचार्य ने सब दर्शनों
और वादियों के मन्तव्य को सापेक्ष सत्य कह कर अनेकान्त की सांकल में कड़ियों की तरह जोड़ दिया है। इन्होंने सब दर्शनों को अनेकान्त का आश्रय लेने का सचोट उपदेश दिया है। आचार्य ने स्पष्ट कहा है कि जहाँ अनेकान्त है वहीं सम्यग दर्शन है और जहाँ एकांत हैं वहाँ मिथ्या दर्शन है। इस प्रकार अनेकांत की तर्क संगत स्थापना करने वाले प्रथम आचार्य सिद्धसेन ही हैं।
सिद्धसेन जैसे प्रसिद्ध तार्किक और न्यायशास्त्र के प्रतिष्ठापक थे जैसे एक स्तुतिकार भी थे। इन्होंने बत्तीस द्वात्रिंशिकाओं की रचना की, ऐसा कहा जाता है किन्तु वर्तमान में २२ बत्तीसियाँ ही उपलब्ध हैं। इनकी उपलब्ध द्वात्रिशिकाओं में से ७ द्वात्रिशिकाएँ स्तुतिमय हैं। इन स्तुतियों से यह झलकता है कि भगवान महावीर के तत्त्वज्ञान के प्रति इनकी अपार श्रद्धा थी । आचार्य श्री के प्रौढपाण्डित्य के कारण इन' स्तुतियों में भक्ति । के साथ ही साथ जैनधर्म के तत्त्वज्ञान का सुन्दर संकलन और संगुम्फन । भी हो गया है । श्वेताम्बर साहित्य में संस्कृतभाषा में पद्यात्मक प्रौढ ग्रन्थों के प्रथम प्रणेता आप ही हैं। . ..' इन आचार्य की समकक्षता में रखे जा सकने वाले आचार्य समन्तभद्र हुए हैं। आचार्य समन्तभद्र दिगम्बर परम्परा में और सिद्धसेन दिवाकर श्वेताम्बर परम्परा में हुए हैं। वैसे इन दोनों 'आचार्यों का दोनों सम्प्रदायों में अत्यन्त आदरपूर्ण स्थान है । दोनों परम्पराओं के उत्तरकालीन आचार्यों ने अपने २ ग्रन्थों में इनके वचनों को प्रमाण रूप से उद्धृत किये हैं। :: .
... सिद्धसेन के जीवन के सम्बन्ध में जानने के लिए प्रभावक चरित्र का ही अवलम्बन लेना होता है । इसके अनुसार ये विक्रमराजा के ब्राह्मण पुरोहित देवर्षि के पुत्र थे। माता का नाम देवश्री था । जन्मस्थान विशाला (अवन्ती) है । सिद्धसेन बाल्यावस्था. से ही कुशाग्र बुद्धि थे अतः उन्होंने - सर्वशास्त्रों में निपुणता प्राप्त की। वादविवाद करने में अद्वितीय होने से
तत्कालीन समर्थवादियों में इनका ऊँचा स्थान था । इन्हें अपने पारिटत्य
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