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________________ जैन - गौरव स्मृतियां 1 का बड़ा अभिमान था । इन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि जो मुझे वाद में पराजित करेगा उसका मैं शिष्य बन जाऊँगा । वाद में वादियों को पराजित करते २ ये वृद्धवादि नामक जैनाचार्य से मार्ग में ही मिले और उन्हें वाद करने की चुनौती दी । आचार्य ने कहा- सभ्य के विना हारजीत का निर्णय कौन करेगा ? अपनी अहंकारमय वाग्मिता के कारण उन्होंने वहाँ जो खाले थे उन्हें सभ्य मान लिया । वृद्धवादी ने कहा-अच्छा वोलो । तत्र सिद्धसेन ने संस्कृत में बोलना शुरू किया । ग्वाले कुछ न समझे । इसके बाद वृद्धवादी ने अपभ्रंश भाषा में - देशीभाषा में सभ्यों के अनुकूल उपदेश दिया । ग्वालों ने वृद्धवादी की विजय घोषित कर दी। इसके बाद राजा की सभा में भी वाद हुआ उसमें भी सिद्धसेन पराजित हो गये। फलतः वे वृद्धवादी के शिष्य वन गये । दीक्षा के बाद उनका नाम कुमुदचन्द्र रक्खा किन्तु वे सिद्धसेन दिवाकर के नाम से ही प्रसिद्ध हुए । डाँ० सतीशचन्द्र अपनी न्यायावतार की भूमिका में लिखते हैं कि "विक्रम के नौ रत्नों में ' क्षपणक' का निर्देश मिलता है वह सिद्धसेन के लिये ही होना चाहिए ।" इस पर से इनका समय विक्रम की प्रथम शताब्दी प्रतीत होता है । परन्तु इनकी संस्कृत भाषा का स्वरूप देखते हुए इनका काल विक्रम की चौथी पाँचवी शताब्दी सिद्ध होता है । भद्रबाहु द्वितीयः--- इनका समय विक्रम की पांचवी या छठी शताब्दी है । इन्होंने आगमों पर नियुक्तियों की रचना की हैं। ग्यारह नियुक्तियाँ इनकी रची हुई है। इस पाँचवी-छठी शताब्दी में दिगम्बर आचार्य वट्टकेर ने मूलाचार ग्रन्थ की रचना की । शिवनंदि यापनीय ने आराधना, सर्वनन्दि ने लोकविभाग, यति वृषभाचार्य ने तिलोयपन्नति की रचना की । पूज्यपादः- इसी समय पूज्यपाद ( देवनन्दि जिनेन्द्र बुद्धि ) ने तत्त्रार्थसूत्र पर सर्वार्थसिद्धि नामक टीका लिखी । जैनेन्द्र व्याकरण, शब्दावतार न्यास, समा धितन्त्र, वैद्यकशास्त्र, मंत्र यंत्रशास्त्र अत्यतिष्टालक्षणसारसंग्रह, जैनाभिषेक, शान्त्यष्टक और देशभक्ति इष्टोपदेश भी आपकी रचनाएँ हैं। (४०६) श्र सम
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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