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莊子大
जैन- गौरव-स्मृतियाँ
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'ने इस पर सर्वार्थसिद्धि नामक टीका रची। आठवीं-नौवीं सदी में तो इस पर टीकाओं की भरमार हुई हैं ।
तत्वार्थ पर इनी टीकाएँ लिखे जाने कारण यह प्रतीत होता हैं कि इस ग्रन्थ में सब प्रकार के विपयों का सुन्दर ढंग से संकलन कर निरूपण किया गया है । तत्वविद्या, आध्यात्मिकविद्या, तर्कशास्त्र, भौतिक विज्ञान, भूगोल -खगोल आदि समस्त विषयों पर इसमें निरूपण हैं ।
श्रावकप्रज्ञप्ति, प्राशमरति, जम्बूद्वीपसमास, क्षेत्रविचार, पूजा-प्रकरण आदि ग्रन्थ भी उमास्वाति रचित हैं । ये उत्कृष्ट प्रकरण - रचयिता ( करीब ५०० प्रकरण कर्त्ता ) कहे जाते हैं ।
श्री सिद्धसेन दिवाकरः ---
श्री सिद्धसेन दिवाकर सचमुच जैनसाहित्याकाश के दिवाकर हैं । ये महान् तार्किक और गम्भीर स्वतंत्र विचारक आचार्य जैनसाहित्य में एक नवयुग के प्रवर्त्तक हैं। जैन साहित्य में इनका वही स्थान है जो वैदिक साहित्य में न्यायसूत्र के प्रणेता महर्षि गौतम का और बौद्ध साहित्य में प्रखर तार्किक नागार्जुन का है ।
सिद्धसेन दिवाकर के पहले जैन वाङ्मय में तर्क शास्त्रसम्बन्धी कोई स्वतंत्र ग्रन्थ नहीं था । आगमों में ही प्रमाणशास्त्र सम्बन्धी प्रकरण प्रकीर्ण बीजरूप तत्त्व संकलित थे । उस समय का युग तर्क प्रधान न होकर आगम प्रधान था । ब्राह्मण और बौद्धधर्म की भी यही परिस्थिति थी परन्तु जब से महर्षि गौतम ने न्यायसूत्र की रचना की तब से तर्क का जोर बढ़ने लगा । सब धर्माचार्यो ने अपने २ सिद्धान्तों को तर्क के बल पर संगठित करने का प्रयत्न किया । उस युग में ऐसा करने से ही सिद्धान्तों की रक्षा हो सकती थी । युगधर्म को पहचान कर आचार्य सिद्धसेन ने आगमों में बीज रूप से रहे हुए प्रमाणनय के आधार पर 'न्यायावतार' ग्रन्थ की संस्कृत भाषा में रचना कर तर्कशास्त्र का प्रणयन किया । न्यायावतार में केवल ३२ अनुष्टुप् श्लोकों में सम्पूर्ण न्यायशास्त्र के विपच को भर कर गागर में सागर भर दिया है । न्यायावतार के अतिरिक्त आपकी दूसरी रचना 'सन्मतितर्क' है । इसमें तीन काण्ड है । पहले काण्ड में नय सम्वन्धी विशद विवेचन किया
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