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________________ * जैन-गौरव-स्मृतियाँ Aries * (१४) लोकबिन्दुसार-इसमें लोक, धर्मक्रिया और गणितसम्बन्धी विवेचन हैं। .: वैसे तो समस्त जैनागमों का 'दृष्टिवाद' में ही अवतार हो जाता है किन्तु दुर्बलमति पुरुष और स्त्रियों के लिये उसके आधार से अलग अलग ग्रन्थों की रचना होती है। श्री जिनभद्र क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यक भाष्य में कहा है: जइविय भूयावाए सव्वस्स व ओमयस्स ओआरों। - नितहणा तहावि हु दुम्मेहे इत्थीय (गाथा.५५१)। अर्थात् यद्यपि दृष्टिवाद में सकल वाङमय का अवतार हो जाता है-सब विषयों का समावेश हो जाता है तदपि मन्दमति के स्त्री-पुरुषों के लिएशेप अंगों की रचना की जाती है । . . उक्त विवेचन से यह प्रतीत हो जाता है कि सकल श्रुत का मूलाधार गणधर-अथित द्वादशाङ्ग हैं परन्तु इनके अतिरिक्त कतिपय अंगवाह्यग्रन्थ भी आगम रूप से प्रमाणभूत माने जाते हैं । अंगवाह्य ग्रन्थों की रचना स्थविरों के द्वारा की जाती है। ये स्थविर दो प्रकार के होते हैं- चतुर्दशपूर्वधारी ' (श्रुतकेवली) और दशपूर्वधारी। चतुर्दशपूर्वधारी की इतनी योग्यता मान्य है कि वे जो कुछ कहेंगे वह जिनागम से विरुद्ध नहीं होगा । जिनक्तो विपयों को संक्षिप्त या विस्तृत कर के तत्कालीन युग के अनुकूल ग्रन्थरचना करना उनका प्रयोजन होता है । इनके द्वारा रचितग्रन्थों का प्रामाण्य स्वतः नहीं किन्तु गणधर प्रणीत आगमों के साथ अविसंवादी होने से हैं। जैन अनुश्रुति के अनुसार ऐसे चरमश्रुतकेवली श्री भद्रवाहु स्वामी हुए हैं। इनके वाद श्री स्थूलिभद्र ने यद्यपि चौदह पूर्वो का अध्ययन किया तदपि उन्होंने अन्त के चार पूर्वी की मूलमात्र वाचना ली । अतः वे अर्थ की दृष्टि से तो दशपूर्वी ही ये । जैनमान्यतानुसार चतुर्दशपूर्वधर और दशपूर्वधर नियमतः सम्यग्दष्टि ही होते हैं अतः उनके अन्यों में आगम विरोधी बातों की सम्भावना नहीं होती अतः उनके रचित आगम भी प्रमाण कोटि में गिने जाते हैं। अंगवाह्य प्रागम ग्रन्थों के सम्बन्ध में सब जैनसम्प्रदाय एकमत नहीं है। दिगम्बर, श्वेताम्बरमूर्तिपूजक और स्थानकवासी सम्प्रदाय इस विषय Kekekeleckekels:( ३६५)kokeskilekekaketke
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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