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★ जैन- गौरव स्मृतियाँ
अजमेर के गवर्नर धनराज सिंधी:
सन् १७८७ में अजमेर पुनः महाराजा विजयसिंह के अधिकार में चुका था । आपने सवाल सिंघी गौत्रीय धनराज सिंघी को अजमेर का गव र्नर नियुक्त किया । इस समय वहाँ की राजनैतिक स्थिति बड़ी विषम थी । मरहठें यद्यपि पराजित कर दिये गये थे। पर छिपे तौर से उनकी तैयारियाँ जारी थीं और कुछ ही महीनों बाद उन्होंने फिर मारवाड़ पर आक्रमण कर मेड़ता और पाटन पर अधिकार जमा लिया। अजमेर पर भी धावा बोला । धनराजजी के पास मरहठों के मुकाबले कम सेना थी तदपि वे बराबर मुकाबले में : डटे रहे। इस बीच महाराज विजयसिंह जी ने धनराजजी को कहला भेजा कि. अजमेर मरहठों को सौंप कर जोधपुर चले आओ। पर स्वाभिमानी सिंघी जी को यह आज्ञा अच्छी नहीं लगी। उन्होंने आत्मसमर्पण की अपेक्षा मरना अच्छा समझा । अपने हाथ में पहनी हुई हीरे की अंगूठी का हीरा निकाल कर उसे खा गये । इस तरह वे अपने स्वाभिमान और कत्र्तव्य, पालन के लिए बलिवेदी पर चढ़ गये। मरने से पहले वे एक संदेश दे गये कि- " मेरी मृत्यु के उपरान्त ही मरहठे अजमेर में प्रवेश कर सकते हैं पहले नहीं ।"
इस प्रकार राजस्थान के इतिहास में जैनजाति के नरवीरों का अत्यन्त गौरव-मय स्थान रहा है। राजस्थान के राजनैतिक अभ्युदय में इनका सहयोग अत्यन्त महत्वपूर्ण है ।
मुगल सम्राट् और जैनमुनी.
अकबर बड़ा दूरदर्शी और विचार-शील शासक था । उनकी धार्मिक उदारनीति ही उसकी दूरदर्शिता की द्योतक है । उसकी मान्यता थी कि प्रत्येक धर्म में कुछ न कुछ अच्छाई अवश्य है अतः वह उसे आदर की दृष्टि से देखता था । वह अपने दरवार में सब धर्मों के अच्छे २ विद्वानों को निमंत्रित करता था और उनके साथ धार्मिक चर्चा करता था ।
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