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* जैग-गौरव-स्मृतियाँ Arkee
परम आश्रयदाता भी थे। कवियों के आश्रयदाता होने से ये 'लघुभोज' कहलाते थे। इन्होंने एक विद्यामंडल बनाया था जिसमें राजपुरोहित सोमेश्वर, हरिहर, नानाक, मदन, यशोवीर और अरिसिंह आदि थे। इनके निकट सम्पर्क में आये हुए ऋवि और पंडितों में अमरचन्द्र सूरि, विजयसेन - सूरि, उदयप्रभ सूरि, नरचन्द्र सूरि नरेन्द्रप्रभसूरि वालचन्द्र सुरि, जयसिंह
सूरि तथा माणक्यचन्द्र आदि जैन साधुओं के नाम गिनाये जा सकते हैं। विक्रम की तेरहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में और चौदहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में गुजराज में जो मूल्यवान् संस्कृतसाहित्य रचा गया है वह मुख्य रूप से वस्तुपाल के विद्यामण्डल का और वस्तुपाल के स्वयं के आश्रय और उत्तेजना का परिणाम है। साहित्य को समृद्ध बनाने और कवियों को पुरस्कृत करने में वस्तुपाल ने लाखों रुपयों का सदुययोग किया था । अठारह क्रोड़ के द्रव्य से उन्होंने भडौंच, खम्भात और पाटन में ज्ञान-भण्डार स्थापित किये थे । इन प्रवृत्तियों से वस्तुपाल को विद्याप्रियता, साहित्य रसिकता और सरस्वती की सच्ची आराधना का परिचय मिलता है।
- वस्तुतः वस्तुपाल-तेजपाल ने लक्ष्मी, सरस्वती और शक्ति के सामञ्जस्य से जैनधर्म और गुजरात को अपूर्व गौरव प्रदान किया है । ऐसें नर वीरों को जन्म देकर जैनधर्म ने संसार की बहुमून्य सेवा की है। इन नर वीरों के वर्णन से स्पष्ट हो गया है कि गुजरात में जैनधर्म को कितना गौरव प्राप्त हुआ है।
दक्षिणभारत के जैनराजा और जैनधर्म विन्ध्याचल पर्वत से उस ओर का प्रदेश दक्षिणभारत ही समझा जाता है वैसे ठेट दक्षिणभारत तो चोल, पांड्य, चेर आदि देश ही कहलाते हैं। दक्षिणभारत में जैनधर्म का प्रचार इतिहास काल के प्रारम्भ होने से यहत प्राचीनकाल से ही हो चुका था। पौराणिक अनुश्रतियां के अनुसार भगवान ऋषभदेव के पुत्र बाहुबली को दक्षिणभारत का राज्य मिला था। पोटपर उनकी राजधानी थी। सम्राट भरत उनके ज्येष्ठभ्राता थे। बाहुबली ने भरत की आज्ञा में रहना अपने स्वाभिमान के विरुद्ध समझा । दोनों भाइयों ने