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* जैन-गौरव स्मृतियों
के पूर्ववर्ती भारत में प्रजातन्त्र प्रतालि, पर चलने वाले.. गणराज्यों का अस्तित्व था । निष्पक्ष ऐतिहासिक अन्वेषण करनेवाले विद्वानों ने प्रायः एक मत से स्वीकार करलिया है कि प्राचीन भारत में गणतन्त्रों (प्रजातंत्रों). की व्यवस्था विद्यमान थी.) ............. : ...............
... उक्त भ्रान्तधारण का, एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि भारत की संस्कृति, इतिहास, समाज-व्यवस्था आदि की जानकारी का मुख्यआधार इन विद्वानों ने वैदिकसाहित्य को ही माना। भारतवर्ष में हजारों वर्षों से. वैदिक, जैन और बौद्धधर्मः साथसाथ फले-फूले हैं। भारत की प्राचीन , संस्कृति के साङ्गोपाङ्ग ज्ञान के लिए इन तीनों धर्मों के साहित्य के परिशीलन . की आवश्यकता है। इसके विना जो निर्णय किया जाता है वह अपूर्ण और . धास्तविकता से वञ्चित हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है । भारत के इतिहास और संस्कृति के सम्बन्ध में जो भ्रान्तधारणाएँ फैली हुई हैं इसका एक मुख्य कारण यह भी हैं। सहस्रों वर्षों से भारत के आँगन में फले-फूले जैनधर्म के विस्तृत और विशाल साहित्य की उपेक्षा करके भारत के प्राचीन सांस्कृतिक स्तर के सम्बन्ध में किसी निर्णय पर पहुँच जाना निस्संशय भयंकर भूल करना है । भारतीय साहित्य, संस्कृति, दर्शन, इतिहास, समाज व्यवस्था आदि की जानकारी के लिए प्राचीन जैनागमों का महत्व निर्विवाद है। यह खेद का विषय है कि उनका सांगोपाङ्ग अनुशीलन नहीं हो पाया; अन्यथा बहुत कुछ आश्चर्योत्पादक नवीनतथ्य प्रकाश में आते । वैदिक साहित्य में राजा को ईश्वरीय अंश मानकर शासन की सम्पूर्ण सत्ताएँ प्रदान की गई है। वहाँ राजा के एकछत्र शासनप्रणालि का प्रभुत्व है। उसी के
आधार पर उक्त विद्वानों ने यह भ्रान्त धारण वनाली । यदि वे जैन और बौद्धसाहित्य का भी गहरा अनुशीलन करते तो उन्हें ज्ञात हो जाता कि पञ्चीस सौ छब्बीस सौ वर्ष पूर्व भी भारत में गणराज्यों की सत्ता विद्यमान थी। वैशाली का गणतंत्र उस समय का अत्यन्त समृद्ध और शक्तिशाली राज्य था ।कांशी और कौशल के सल्ली और लिच्छवीक्षत्रियों का एक संगठित प्रजातन्त्रात्मक शासनतन्त्र था जिसका नाम "वन्जियन या वृजिगण राज्य" था। वे क्षत्रियकुल अपने प्रतिनिधि चुन कर भेलते थे और वे सब 'राजा' - कहलाते थे। इस राष्ट्रसंघ ( गणराज्य ) का एक प्रमुख होता था।
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