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जैन गौरव-स्मृतियां
'घर में भी घुस आया है । इस वलात् आये हुए विकार को प्रसन्नता पूर्वक निकाल देने में ही सच्ची शोभा और गौरव है। जैनधर्म तो गुण पूजक है
और वह गुणों के अनुसार ही ऊँच-नीच भाव को स्वीकार करता है । जैन सिद्धान्त कहता है कि पाँचवे गुणस्थान और इसके आगे के गुणस्थान में उच्चगोत्र का ही उदय होता है इसका अर्थ यही हुआ कि सदाचारी गृहस्थ उच्च गोत्र वाला है चाहे वह किसी भी जाति में जन्मा हो। जो. सदाचारी नहीं है वह नीच गोत्र वाला है चाहे वह किसी भी ब्राह्मणादि जाति में भी क्यों न पैदा हुआ हो। सारांश यही है कि जैनधर्म गुणों के आधार पर समाज रचना के सिद्धान्त का समर्थक है।
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आधुनिक युग में नारी की समस्या भी एक प्रमुख सामाजिक समस्या बनी हुई है। बीसवीं शताब्दी के नये युग में यह समस्या भी नये रूप में विचारणा की अपेक्षा रखती है। चारों तरफ के वातावरण
में स्वतंत्रता की अद्भुत लहर व्याप्त हो गई है अतः सोये जैनसंघ में नारी हुए नारी-समाज में भी नवीन चैतन्य का परिस्पन्दन हुद्या का स्थान है। वह भी वातावरण से प्रभावित हुई है। अतः यह
विचारना आवश्यक है कि नारी का समाजिक महत्त्व क्या है ? उसका कार्यक्षेत्र क्या है ? उसे पुरुषों के समान ही सब अधिकार हैं या नहीं ? आदि काल में नारी का समाज में क्या स्थान रहा है ? मध्यकाल में उसकी स्थिति क्या हो गई ? वर्तमान में उसका क्या उपयुक्त स्थान है ? तथा जैनधर्म ने नारी को क्या स्थान दिया है ?
धि में नारी हुए नरोता की अद्भुतती है। चारों तर
सृष्टि के संचालन में नर और नारी का समान हिस्सा है । पुराणों में अर्द्धनारीश्वर की कल्पना की गई है जो इसी बात की प्रतीक है कि नर और नारी मिल कर परिपूर्णता को प्राप्त होते हैं। नर और नारी एक दुसरे के पूरक हैं। नर अपने आप में पूर्ण नहीं है और नारी भी अकेली अपने
आप में पूर्ण नहीं है। दोनों अलग २ निरपेक्ष अवस्था में अपूर्ण हैं और जब दोनों सापेक्ष होकर मिल जाते हैं तो उनमें सांसारिक पूर्णता आजाती है। इससे यह स्वतः सिद्ध हो जाता है कि नर और नारी दोनों समकक्ष हैं। कोई किसी से कम नहीं है और कोई किसी से श्रेष्ठ या उच्च होने का दावा नहीं
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