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जैन- गौरव स्मृतियां ><><><
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साम्य की सुदृढ़ : भूमिका पर खड़ा हुआ जैनधर्म साम्यमूलक समाजव्यवस्था का मूल प्रवर्तक है | वह मानवमात्र को धार्मिक और सामाजिक क्ष ेत्रः में समान अधिकार प्रदान करता है । वह किसी व्यक्ति या - जैनधर्म और वर्गः जाति विशेष को जन्म से ही कोई महत्व नहीं देता अपितु 'व्यवस्था :- वह गुणों को आदर देता है । वह गुणपूजक है, जातिपूजक नहीं । अतः जैनधर्म की दृष्टि में वह व्यक्ति उच्च है जो अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, त्याग, तप आदि का पालन करता है, चाहे वह किसी भी जाति या कुल में पैदा हुआ हो। इसी तरह वह व्यक्ति नीच है जो हिंसादि क्ररे कर्म करता है, झूठ बोलता है, चोरी करता है, दुराचार का सेवन करता है और नाना प्रकार के दुर्गुणों का तथा दुर्व्यसनों का शिकार होता है। जैनधर्म की दृष्टि में द्वाराचारी ब्राह्मण की अपेक्षा सदाचारी चाण्डाले उच्च माना गया है । तात्पर्य यह हैं कि जैनधर्म में ॐचनीचका आधार मनुष्य के कार्य हैं, जाति नहीं । अपने कार्यों के द्वारा ही मानव ऊँचा बन सकता है. और अपने कार्यों के द्वारा ही नीचा बन सकता है | जन्मगत या जातिगत ऊँचनीचता को जैनधर्म में कतई स्थान नहीं है ।
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जातिवाद का प्रचार तो ब्राह्मणत्व के अभिमान का परिणाम मात्र कहा जा सकता है । ब्राह्मणसंस्कृति के मूल स्वरूप में भी स्पृश्यापृश्य की या ऊँचनीच की भावना नहीं रही थी । मूल स्वरूप में तो वहाँ भी गुण-कर्म के अनुसार कार्य-विभाजन ही किया गया था ताकि सब सामाजिक सुविधाएँ उपलब्ध हो सकें । समाजतन्त्र के संचालन के लिए कार्य विभाजन आवश्यक है और वही वर्ण व्यवस्था के द्वारा किया गया था परन्तु उसमें ऊँचनीच की या छूआछूत की भावना को कतई स्थान नहीं दिया गया था । सामाजिक दृष्टिकोण से शुद्धि का कर्म भी उतना ही आवश्यक और महत्व है जितना कि पण्डिताई का कार्य । इस लिए पण्डिताई करने वाला ब्राह्मण ऊँचा है और शुद्धि करने वाला भंगी नीचा है यह क्योंकर माना जा सकता है ? मतलब यह है कि वर्णव्यवस्था के मूल में ऊँचनीच या स्पृश्यास्पृश्य को भेद नहीं था । यह तो अपनी सत्ता को अनुरण बनाये रखने के उद्द ेश्य से ब्राह्मणों का प्रचारित किया हुआ स्वार्थपूर्ण विधान है । ब्राह्मण संस्कृति के नायकों ने जातिवाद का दुर्ग खड़ा किया और उसकी
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