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जैनगौरव-स्मृतियाँ ★
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रखना आदि २ है । ये दोनों वर्ग एक दूसरे से पूरक हैं। ये दोनों मिल कर धर्मशासन को सुचारु रूप से संचालित कर सकते हैं । ये दोनों वर्ग अपने २ दायित्व को समझते हुए उसका निर्वाह करते चले तो संघ में महान शक्ति का प्रादुर्भाव हो जाता है । इस सम्मिलित संघ का इतना अधिक महत्व है कि यह तीर्थङ्करों द्वारा भी वन्दित किया जाता है । नन्दीसूत्र के आरम में विविध उपमाओं द्वारा संघ की स्तुति की गई है। श्रमण और श्रावक वर्ग का परस्पर सहयोग जिन-शासन का अभ्युदय करने वाला है। इसीलिए भगवान महावीर ने इस प्रकार की सहयोग पूर्ण संघ व्यवस्था का निर्माण किया है।
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भगवान् के संघ रूपी मुक्ताहार के साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका रूप अनमोल मोती हैं। ये सब मोती जब परस्पर में मिले हुए रहते हैं तो हार के रूप में कितने सुशोभित प्रतीत होते हैं !
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भगवान् महावीर ने इस चतुर्विध संघ व्यवस्था को सुचारु रूप- से चलाने के लिए एक अत्यन्त और नितान्त आवश्यक गुण का प्रतिपादन किया है; वह है स्वधर्मिवात्सल्य । इसके होने से ही तो यह व्यवस्था सजीव रह सकती है और इसके अभाव में यह निर्जीव सी हो जाती है। इसलिए इस संघ व्यवस्था का प्रारण स्वधर्मिवात्सल्य कहा जा सकता है अपने सहधर्मियों के साथ वत्सलता का व्यवहार करना, उनके दुःख में सहानुभूति प्रकट करना और उसे मिटाने में यथाशक्ति सहयोग देना प्रत्येक जन का कर्तव्य है । साधु समुदाय में भी इस वात्सल्य की बहुत ही अधिक आवश्यकता है। इसके अभाव में जिन शासन आज छिन्न भिन्न हो रहा है ! यह परिस्थिति भयावह है । प्रत्येक जैन का कर्त्तव्य है कि वह वात्सल्य को भाव अपनाकर भगवान् महावीर के संघ को एक अखण्ड रुप प्रदान कर उनके प्रति अपनी सच्ची भक्ति का परिचय दे । भगवान के संघ की सच्ची शक्ति वात्सल्य में है । यह वत्सलता ही सामाजिक जीवन को सुख शान्तिमय बनाने की कुञ्जी है । भगवान् महावीर के इस वात्सल्यमय संघ की सदा विजय हो । जयति
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जैन.
शासनम् ।
Ksksksksks (२६०) kehekekekeke