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________________ ><><> जैन-गौरव स्मृतियां ★ . ". सहायता से अपने आपको उच्च घोषित किया। जबतक किसी वर्ग को निम्नतम घोषित न किया जाय तबतक उन्हें अपनी उच्चता सुरक्षित नहीं जान पड़ी इसलिए उन्होंने सेवा करने वाले वर्ग को नीच घोषित कर दिया । उस समय ब्राह्मणों के हाथ में समाजतंत्र और राजतंत्र था इसलिए उसकी सहायता से उन्होंने ऐसे २ विधान बना लिए जिससे ब्राह्मण वर्ग को जन्मतः श्रेष्ठ और शूद्र को जन्मतः नीच मान लिया गया। साथ ही ब्राह्मण. वर्ग को सुविधाएँ दी जाने लगीं और शुद्र वर्ग को सुविधाओं से वंचित कर दिया गया । यह वैषम्य इस सीमा तक पहुँच गया कि जिस मार्ग पर ब्राह्मण चलता हो उस पर शूद्र को चलने का अधिकार नहीं है; शूद्रों को धर्मशास्त्र सुनने और पढ़ने का अधिकार नहीं है; उन्हें धर्मस्थानों में और सार्वजनिक स्थानों में भी जाने का अधिकार नहीं हैं; सार्वजनिक भोजनालयों में भोजन करने का उन्हें अधिकार नहीं और यहाँ तक कि सार्वजनिक कूओं से जल भरने से भी वे वंचित कर दिये गये । भगवान् महावीर की धर्म - क्रान्ति के पूर्व जातिगत वैषम्य ने बहुत बुरा रूप धारण कर लिया था । "जाति का अभिमान करने वाले ब्राह्मणों ने शूद्रों पर अमानुषिक अत्याचार करने में मानवीय सीमा का भी उल्लंघन कर दिया था। यदि किसी राह चलते शूद्र के कान में वेद के शब्द पड़ जाते तो धर्म के ठेकेदारों के द्वारा उसके कानों में उकलता हुआ सीसा गलवाकर भरवा दिया जाता था । कितना घोर अत्याचार! धर्म के नाम पर कितना घोर अधर्म !! नइ सब बातों में जातिवाद का भूत काम कर रहा था । 6 " के मूल जैनधर्म ने प्रारम्भ से ही ब्राह्मणों के इस जातिवाद का विरोध किया था । श्रमण भगवान् महावीर ने तो जातिवाद के दुर्ग को धराशायी करने के 'लिये प्रवल आन्दोलन किया। उन्होंने स्पष्ट घोषित किया कि “समस्त मानव जाति एक हैं । मानव मानव के बीच जातिगत भेद की दीवार खड़ी करना नितान्त पाखण्ड है । मानव समाज के किसी वर्ग को धार्मिक या सामाजिक अधिकारों से वन्चित रखना भयंकर पाप है । छूआछूत की भावना मानवता के लिए कलंक रूप है । जो धर्म किसी मानव को अस्पृश्य बतलाता है वह धर्म नही वरन् धर्म का ढोंग है। जिस प्रकार हवा, पानी, सूर्य का प्रकाश, चन्द्रमा की चांदनी और वृक्ष की छाया आदि प्राकृतिक पदार्थों पर प्राणिमात्र का XXXXXXXXX<«(R£?);X<::X<XX<?XXXXXXXX
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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