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* जैन-गौरव-स्मातया
जैसे घड़ा जिस समय जल धारण की क्रिया कर रहा हो तभी वह घड़ा है अन्यथा नहीं । यह इस नय का अभिप्राय है।
नैगमनय की अपेक्षा से न्याय-वैशेषिकदर्शन, संग्रहनय की अपेक्षा से वेदान्तदर्शन, व्यवहारनय की अपेक्षा चार्वाकदर्शन और ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा से बौद्धदर्शन का मन्तव्य ठीक है परन्तु ये उक्त दर्शन अपने अपने मन्तव्य को ही एकान्त परिपूर्ण सत्य मान लेते हैं अतः सत्य का अंशं भी विकृत हो जाता है और ये नयाभास के उदाहरण बन जाते हैं । बौद्धदर्शन वस्तु के अनित्यत्व धर्म को ही मानकर नित्यत्व का तिरस्कार करता है और सांख्यदर्शन वस्तु के कूटस्थ नित्यत्व को स्वीकार करके अनित्यत्व का अपलाप करता है । उक्त दोनों दर्शन अपने २ पक्ष के आग्रही हैं और एक दूसरे को मिथ्या कहते हैं लेकिन वास्तविक दृष्टि से दोनों ही अपूर्ण हैं । वस्तु में नित्यत्व
और अनित्यत्व-दोनों धर्म पाये जाते हैं । अतएव वह नित्यानित्य है, यह कह कर जैनदर्शन का नयवाद उक्त दोनों विरोधी दृष्टिकोणों का समन्वय करता है।
जैनदर्शन का नयवाद द्वैत-अद्वैत, निश्चय-व्यवहार, ज्ञान-क्रिया, स्वभाव-नियति-काल-यहच्छा-पुरुषार्थ आदि वादों का बड़ी कुशलता के साथ समन्वय करता है। जैनदर्शन, विभिन्न विचारों के पीछे रहेहुए विभिन्न दृष्टिबिन्दुओं का अवलोकन करके समन्वय के सिद्धान्त के द्वारा परस्पर के मनोमालिन्य को दूरकर एकता स्थापित करता है नयवाद विचार दृष्टि के लिए अंजन का कार्य करता है जिससे दृष्टि का वैषम्य दूर हो जाता है। नयवाद प्रजा की दृष्टि को : विशाल और हृदय को उदार बनाकर मैत्रीभाव का मार्ग सरल बना देता है । समस्त कलहों को शमन करके जीवनविकास के मार्ग को सरल बनाने में नयवाद प्रधान और समर्थ अंग है। नयवाद के विमल जल से दृष्टि का प्रक्षालन हो जाने से राग-द्वेष का प्रचार बन्द हो जाता है। इस तरह आध्यात्मिक और व्यावहारिक-उभय दृष्टि से नयवाद विश्वहितङ्कर सिद्धान्त है । श्री समन्तभद्राचार्य ने कहा है:
- नयास्तव स्यात्पदलाच्छनाः स्युः रसोपविद्धा इव लोहधातवः ।। भवन्त्यभिप्र'तफला यतस्ततो भवन्तमार्याः प्रणता हितैपिणः ।। . .