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★ जैन- गौरव - स्मृतियां ★:
हे जिनेन्द्र ! जिस प्रकार विविध रसों से सुसंस्कारित लोह-स्वण- आदि धातु अभीष्ट पौष्टिकता और स्वास्थ्य प्रदान करती हैं इसी तरह 'स्यात्' पद अंकित आपके नय अभीष्ट फल के प्रदाता हैं अतएव हितैषी आर्यपुरुष आपको नमस्कार करते हैं ।
स्याद्वाद की समन्वय शक्ति को प्रदर्शित करते हुए प्रखरतार्किक श्री सिद्धसेन दिवाकर ने द्वात्रिंशिका स्तोत्र में कहा है:
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उद्घाविव सर्वसिन्धवः समुदीर्णास्तिवयि नाथ ! दृष्टयः । न च तासु भवान् प्रदृश्यते प्रविभक्तासु सरित्स्विवोदधिः ॥
हे नाथ ! जैसे सभी नदियाँ समुद्र में आकर सम्मिलित होती हैं इसी. तरह विश्व के समस्त दर्शन आपके शासन में सम्मिलित हो जाते हैं। जिस प्रकार भिन्न २ नदियों में समुद्र नहीं दिखाई देता है इसी तरह भिन्न २ दर्शनों में आप नहीं दिखाई देते तथापि सब दर्शन समुद्र में नदियों के समान आपके शासन में समा जाते हैं ।
स्याद्वाद के समन्वय तत्त्व की मीमांसा कर चुकने पर अब यह बताना आवश्यक है कि पदार्थ अनन्तधर्मात्मक कैसे है ? उसमें नित्यत्व और अनित्यत्व, सत्त्व और असत्व, सामान्य और विशेष, वाच्यत्व और अवाच्यत्व आदि विरुद्ध धर्म कैसे पाये जाते हैं ?
विश्व के पदार्थों का भलीभांति अवलोकन करने से यह ज्ञात पदार्थों का होता है कि पदार्थमात्र उत्पत्ति, विनाश और स्थिति से युक्त है । तत्त्वार्थाधिगमं सूत्र में कहा है :---.
व्यापक स्वरूप.
उत्पादव्यय धौव्ययुक्त सत"
पदार्थ उत्पत्ति, विनाश और स्थिति वाला है । जिसकी उत्पत्ति होती है, जिसका नाश होता है. और जो ध्रुव रहता है वह पदार्थ है । जो उत्पन्न नहीं होता और ध्रुव नहीं रहता वह पदार्थ ही नहीं है यथा आकाश-कमल । XXXXXXXXXXXX: (२६८)ONOROXXXXX