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जन गौरव-स्मृतियों
आदि संज्ञाओं से सम्बोधित किया जाता है, इसी प्रकार. अपेक्षाभेद से एक - ही वस्तु में अनेक धर्मों की सन्ता प्रमाणित होती है। इस अपेक्षाभेद की उपेक्षा करने से वस्तु का स्वरूप अपूर्ण ही रह जाता है। वस्तु के किसी एक ही धर्म को लेकर उसका निरूपण किया जाय और उसे ही सर्वाश सत्य. समझ । लिया जाय तो यह विचार भ्रान्त ही ठहरेंगा। . .. . . . . . . .
... उदाहरण के लिये किसी एक पुरुष को लीजिए.। उसे कोई पिता, कोई पुन कोई मामा और कोई भाई कह कर पुकारता है। इससे प्रतीत होता है . कि उसमें पितृत्व, पुत्रत्व, पितृव्यत्व, मांतुलत्व और भातृत्व आदि अनेक धर्मों की सत्ता है। यदि उसमें रहे हुए पितृत्व धर्म की ओर ही दृष्टि रख कर उसे सर्वथा पिता हीं मान बैठे तो बड़ा अनर्थ होगा। वह हर एक का पिता ही सिद्ध होगा । परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है । वह पिता भी है और पुत्र भी। अपने पुत्र की अपेज्ञा वह पिता है और अपने पिता की अपेक्षा. वह पुत्र कहलाएगा। इस तरह भिन्न २ अपेक्षाओं से इन सभी संज्ञाओं का उसमें निर्देश किया जा सकता है। जैसे एक ही व्यक्ति में पितृत्व, पुत्रत्व आदि विरोधी धर्मों का पाया जानो अनुभव सिद्ध है उसी तरह एक पदार्थ में । अपेक्षा भेद से अनेक विरोधी धर्मों की सत्ता प्रमाण-सिद्ध है । ... : अनन्त धर्मात्मक वस्तु का स्वरूप एक समय में एक ही शब्द द्वारा सम्पूर्णतया नहीं कहा जा सकता है। इसी तरह उन अनन्तधर्मों में से किसी भी धर्म का अपलाप भी नहीं किया जा. सकता है । अतः केवल एक ही दृष्टिबिन्दु' से पदार्थ का अवलोकन न करते हुए भिन्न २ दृष्टिबिन्दुओं से उसका पर्यालोचन करना न्यायसंगत और वस्तु स्वरूप के अनुरूप है । यही स्याद्वाद का तात्पर्य है । " .. .. ..... . .. स्याद्वाद के अनुपम तत्त्व को न समझने के कारण विश्व में विविध धर्मों, दर्शनों, मतों, ग्रन्थों और सम्प्रदायों में विवाद खड़े होते हैं । एक धर्म . .. के अनुयायी दूसरे धर्म को असत्य-मिथ्या-बतलाते हैं। वे अपने ही माने हुए धर्म को सम्पूर्ण सत्य मानकर दूसरे धर्म का तिरस्कार करते हैं। इस तरह विश्व में धर्म के नाम पर विवाद खड़े होते हैं। यह एकान्तवाद का दुष्परिणाम है । एकान्तवाद वास्तविकता से बहुत दूर होने के साथ ही । अपूर्ण होता है, इतना ही नहीं वह अपूर्णता में पूर्णता का मिथ्या आरोप
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