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★★ जैन गौरव-स्मृतियां★
से प्रकट हो रहे हैं । जैनदर्शन भी यही कहता है कि पदार्थ में अनन्त गुण हैं अतः ऊपर-ऊपर से दिखाई देने वाले वस्तु के स्वरुप को ही उसका सम्पूर्ण स्वरुप नहीं मान लेना चाहिए। पदार्थ के स्वरूप के सम्वन्ध में हमारा दृष्टिकोण ही सही है और दूसरे का दृष्टिकोण मिथ्या है, यह कहना सत्य की हत्या करना है | जब तक कोई व्यक्ति परिपूर्ण ज्ञाता नहीं हो जाता तब तक वह यह दावा नहीं कर सकता । अनन्तज्ञान हुए बिना एक भी पदार्थ का पूरा पूरा ज्ञान नहीं हो सकता है । एक पदार्थ का यदि पूरा पूरा ज्ञान हो जाता है तो वह सब पदार्थों का ज्ञांता भी हो जाता है । अतः जैनागम में कहा गया है:
जे एगं जाइए से सव्वं जाइ, जे सव्वं जाइए से एगं जाई इसी को दूसरे शब्दों में इस प्रकार प्रकट किया गया है:
एकोभावः सर्वथा येन दृष्टः सर्वे भावाः सर्वथा तेन दृष्टाः । सर्वेभावाः सर्वथा येन दृष्टाः, एकोभावः सर्वथा तेन दृष्टः ॥ .
साधारण व्यक्ति का पदार्थ विषयक ज्ञान अपूर्ण होता है अतः यदि वह अधूरे ज्ञान को पूर्ण ज्ञान के रूप में दूसरे के सामने रखता है तो वह अधिकार चेष्टा करता है । प्रत्येक व्यक्ति को अपना २ दृष्टिकोण व्यक्त करने का अधिकार है परन्तु अपने दृष्टिकोण को ही सर्वथा सत्य और दूसरे दृष्टिकोण को सर्वथा मिथ्या कहने का अधिकार उसे नहीं है । जैनधर्म का स्याद्वाद इसी बात को प्रकट करता है ।
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स्याद्वाद की आधारशिला पर खड़ा हुआ जैनधर्म यह कहता है कि प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। दीप से लेकर आकाश तक की छोटी सी छोटी और बड़ी से बड़ी वस्तु में अनन्त धर्म रहे हुए हैं । उन अनन्त धर्मो का विभिन्न दृष्टिबिन्दुओं से जब तक अवलोकन न किया जाय तब तक वस्तु का सत्य स्वरूप नहीं संमझा जा सकता है । विभिन्न दृष्टिकोणों से वस्तु का अवलोकन करना स्याद्वाद है । एक ही पदार्थ में भिन्न २ वास्तविक धर्मों को सापेक्षतया स्वीकार करने का नाम स्याद्वाद या अनेकान्तवाद है । जैसे एक ही पुरुष अपने भिन्न भिन्न सम्बन्धी जनों की अपेक्षा पिता, पुत्र और भ्राता
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