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* जैन-गौरव-स्मृतियां
कर्मों के आगमन को रोकने का नाम "संवर" है और पुराने कर्मों को नष्ट करने का नाम "निर्जरा" है। संवर और निर्जरा के द्वारा जब आत्मा कर्म के . . . . बन्धनों को तोड़ डालता है तब वह मुक्त हो जाता है। ... आत्मा को बन्धनों में बाँधने वाले मुख्यतया अज्ञान, रोग और द्वेष हैं। इनके कारण ही आत्मा की यह बद्ध अवस्था है। इन कारणों को दूर कर देने से आत्मा मुक्त हो सकता है: सम्यग्दर्शन (सत्यश्रद्धा). और · मोक्षाभिमुख ज्ञान के द्वारा अज्ञान की निवृत्ति हो सकती है । और संध्यस्थ भाव के कारण रागद्वेष का उन्मूलन हो सकता है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्-चारित्र ही मोक्ष को प्राप्त करने का राजमार्ग है। सबसे पहले यह श्रद्धा होनी चाहिए कि "मैं इन सांसारिक पदार्थों । से भिन्न हूँ। मेरा वास्तविक स्वरूप ज्ञानमय, दर्शनमय, सुखमय और शक्तिमय है । वे बाह्यपदार्थ मेरे नहीं हैं और मैं इनका नहीं हूँ।" इस प्रकार - जब आत्मा. की वास्तविक प्रतीति होती है, तव सम्यग्दर्शन होता है । सम्यग्दर्शन पूर्वक मोक्षाभिमुख चैतन्य प्रवृत्ति ही सम्यग्ज्ञान है। शुद्ध-श्रद्धा और शुद्ध ज्ञान के साथ कल्याण पथ का अनुसरण करना सम्यक् चारित्र है। शुद्ध-ज्ञान और शुद्ध क्रियाओं के वलपर यह जीव कर्म के बन्धनों से मुक्त हो सकता है । आत्मज्ञान और मध्यस्थभाव यही मुक्ति के मूल उपाय हैं । ध्यान, व्रत, नियम, तप आदि २ इन्हीं मूल कारणों के पोषक होने से उपादेयः ।
... जो आत्मा जितने अंश में मोह और रागद्वेष की परिणति को मन्द करता है वह उतना ही आत्मस्वरूप के निकट पहुँचता है। इस तर-तमता के कारण ही. प्राणियों की विकसित या अविकसितः अवस्थाएँ होती हैं।
आध्यात्मिक विकास क्रम की अवस्था का जैन परम्परा में विशद वर्णन है। वह गुणस्थान के रूप में प्रसिद्ध है। इनका स्वतंत्र. वर्णन अलग प्रकरण में किया जाएगा। जो आत्मा, मोह थार रागद्वेप को नष्ट कर डालता है वह गुक्तात्मा हो जाता है । वह ईश्वर हा जाता है। वह अपने मूल स्वरूप में अवस्थित हो जाती है। उसमें और परमात्मा में कोई भेद नहीं रहने पाता. हैं। कर्मवाद का यह सिद्धान्त यह प्ररणा करता है कि "हे आत्माओं ! उठो, पुरुषार्थ करों, अपने प्रभुत्व के दर्शन करों और कर्म के बन्धनों को तोड़कर