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जैन - गौरव स्मृतियां ★
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परमात्म भाव को प्रकट करो। तुम स्वर परमात्मा हो । आवश्यकता है उस पर आये हुए आवरण को अपने प्रबल पुरुषार्थ से चीर डालने की ।" इस प्रकार कर्म का महान् सिद्धान्त पुरुषार्थ का प्रेरणा देने वाला महामंत्र है ।
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: कर्मवाद का सिद्धान्त व्यावहारिक जीवन में शान्ति का संचार करने वाला, वैराश्य के घने अन्धकार में प्रकाश की किरण चमका देने वाला और स्वावलम्बन का पाठ पढ़ाने वाला गुरु भी है। मानव के कर्मवाद की जीवन में ऐसे भी अनेक प्रसंग आते हैं जिनमें उसकी बुद्धि व्यावहारिकता विचलित हुए बिना नहीं रहती । हर्ष और शोक के प्रसंगों में मानव क्रमशः उन्मत्त और अधीर हो उठता है । ऐसे प्रसंग पर उसकी बुद्धि को समतोल रखने के लिए कर्म के सिद्धान्त की महती उपयोगिता है । मानव जब यह जान लेता है कि मुझे प्राप्त होने वाला सुख दुःख मेरे ही शुभाशुभ कार्यों का परिमाण है, मैं ही मेरे शभाशभ निर्माण का निर्माता हूँ, इसमें किसी दूसरे का हाथ नहीं हैं तो उसे एक प्रकार की शान्ति का अनुभव होता है । सुख के समय में संयम और दुःख के प्रसंग में आश्वासन की सीख देने वाला कर्मवाद ही होता है ।
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- जो आत्मा कर्म सिद्धान्त के तत्त्व को हृदयंगम कर लेता है वह कभी अपने को प्राप्त होने वाले दुःख के लिए किसी दूसरे को नहीं कोसता है । वह दूसरे पर कभी. आक्षेप नहीं करता है कि इसके कारण मुझे यह हानि उठानी पड़ी या दुःख सहन करना पड़ा। वह अपने दुःखः के लिए अपनेआपको उत्तरदायी मानता है। ऐसा करने से आत्म निरीक्षण करने की प्रेरणा मिलती है और दूसरों पर आक्षेप करने की अनुचित प्रवृत्ति से सहज. - ही मुक्ति मिलती है।
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जब जीवात्मा को यह विश्वास हो जाता है कि मेरा उत्थान और पतन मेरे हाथों में ही है तब वह एकदम उत्साह और शौर्य से भर जाता है । निराशा का वातावरण दूर हो जाता है और अपने उज्ज्वल भविष्य का निर्माण करने के लिए कटिबद्ध हो जाता है । इस निर्माण कार्य में आने वाले . विघ्न बाधाओं के सामने भी वह महान् हिमांचल की तरह अडोल रह सकता है। कर्मवाद जीवन में नवीन प्रारण फूँक देता है। वह जीवन में ऐसा प्रकाश
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