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जैनगौरव-स्मृतियां
जैनदर्शन ने की है वह और किसी ने नहीं की । जैनसाहित्य कर्म विवेचन से भरा हुआ है । अतः जैनों का कर्म सिद्धान्त प्रतिपादन अनुपम है । यह जैन दर्शन की एक महती विशेषता है ।
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कारण के बिना कार्य नहीं होता, यह सर्व सम्मत सिद्धान्त है । अतः कर्मबन्ध का कारण क्या है, प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है। जैनाचार्यों ने कर्मवन्ध का मुख्य कारण आत्मा की विभाव परिणति को बताया कर्मबन्ध के कारण है। आत्मा मोह-अज्ञान के कारण राग द्वेष के चक्कर में पड़ और मुक्ति के उपाय जाता है जिससे वह द्रव्य कर्म परमाणुओं को अपनी और आकृष्ट कर लेता है । राग और द्वेष ही कर्म बन्ध के मुख्य कारण हैं । कहा भी है- "रागो य दोसो दुवि कम्म बीयं" । संसार वृक्ष के लिए राग और द्वेष ही कर्म के बीज है। इसी को विशेष स्पष्टता के साथ कहते हुए कर्मबन्ध के पांच कारण भी बताये गये हैं- १ मिथ्यात्व (अशुद्धश्रद्धा ) २ अविरति (त्याग न करना) ३ प्रमाद (असावधानता ) ४ कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ) और ५ अशुभ योभ (अशुभ प्रवृत्ति) ।
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जैनदर्शन में कर्मबन्ध का मुख्य आधार वाद्यक्रियाओं को नहीं बल्कि भावनाओं को माना गया है बाहर से क्रिया यदि पापमय भी दिखाई देती हो तदपि उसमें यदि भाव-विशुद्धि है तो वह चिकने कर्म बन्धन का कारण नहीं होती । इसके विपरीत यदि भावों में मलिनता है तो ऊपर से अच्छी प्रतीत होने वाली क्रिया से भी पाप का ही बन्धन होता है । बाह्य क्रिया पुण्य-पाप की सच्ची कसौटी नहीं है । इसका आधार भावनाओं पर है । अतः "मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः " कहा गया है। जैनसाहित्य में प्रत्येक कर्मप्रकृति के बन्ध-कारणों का विस्तार पूर्वक विवेचन किया गया है। यहाँ उनका विस्तार भय से उल्लेख नहीं किया जाता है ।
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कर्मबन्ध के कारणों का प्रतिपादन करने के साथ ही साथ कर्मों के चक्कर से छुटकारा पाने के उपायों का भी जैनदर्शन ने स्पष्ट रूप सें विवेचन किया है । कर्म बन्धनों से छुटकारा पाने के लिए यह आवश्यक है कि नवीन आते हुए कर्मों को रोकने का प्रयत्न किया जाय और पुराने बँधे हुए कर्मों को ज्ञान, ध्यान, रूप आदि के द्वारा दूर किया जाय । नवीन
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