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________________ S ide जैन-गौरव-स्मृतियाँ Sci कारण आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में प्रतिष्ठित नहीं हो सकता । जब आत्मा अपने प्रबल पुरुषार्थ से इस कर्म को, इस मोहराज को परास्त कर देता है तो शेष कर्म हारे हुए राजा की सेना की तरह भाग जाते हैं । इसे दूर करने का प्रयत्न करना ही प्रथम पुरुषार्थ है । यह आत्मा के मूल. गुण का घात करने से घाति कर्म कहा जाता है । आयुष्यकर्मः-जैसे कैदी वेड़ी में जकड़ा रहता है इसी तरह इस कर्म के प्रभाव से जीवात्मा शरीर रूपी बेड़ी में बँधा रहता है। यह अघातिकर्म है। नामकर्म:-जैसे चित्रकार नाना प्रकार के चित्र बनाता है इसी तरह इस कर्म के प्रभाव से जीव नाना प्रकार के शाशुभ रूप धारण करता है। शरीर, इन्द्रिय, गति आदि की प्राप्ति का कारण यह कर्म है । यह अघाति कर्म कहा जाताहै। ... ... ... ... . . .. . गोत्रकर्मः-जैसे कुम्भकार कभी छोटा बड़ा वनाता हैं कभी बड़ा घड़ा बनाता है इस तरह इस कर्म के प्रभाव से जीव क्भी उच्च कहलाता है और कभी नीच कहलाता है । यह भी अघाति कर्म है। : . . अन्तराय कर्मः-यह आत्मा के अनन्त बल-वीर्य को अवरुद्ध करता है। आत्मा में अनन्त सामर्थ्य है परन्तु इस कर्म के कारण वह प्रकट नहीं होने पाता । जैसे २ इसका क्षयोपशम होता है जैसे २ जीव सामर्थ्य प्राप्त करता है । जैसे राजा किसी याचक पर प्रसन्न होकर कुछ देना चाहता है परन्तु भण्डारी उसे देने नहीं देता । उसी तरह आत्मा कुछ करना चाहता है परन्तु यह कर्म उसमें विघ्न उपस्थित करता है यह आत्मा के मूल गुण. का घात करने से घाति कर्म कहलाता। .. ..... इस प्रकार जैनदर्शन उक्त आठ भूल कर्मप्रकृतियाँ मानता है । इनके अवान्तर भेद-प्रभेद, इनकी स्थिति, इतका उदय-उदीरणा-बंध और सत्ता, इनका संक्रमण, स्थितिघात, रसघात; उद्वर्त्तन-अपवर्तन आदि २ बातों का जैनदर्शन ने खूब स्पष्टता के साथ वणन किया है। जैनसाहित्य में कर्मविषयक विवेचन ने पर्याप्त स्थान ले रक्खा है । कर्म के सम्बन्ध में जितनी स्पष्टता
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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