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* जैन-गौरव स्मृतियां *
बिलतम आवरण होने पर भी जीव में न्यूनतम ज्ञान तो अवश्य रहता है। यदि ऐसा न हो तो जीव-अजीव में कोई भेद नं. रहे । लक्ष्मतम चैतन्य निगोद के जीवों में पाया जाता है । यह ज्ञानावरणीय कर्म आत्मा के ज्ञान गुण का घात करने से घाति कर्म कहा जाता है। ..
यह आत्मा के स्वाभाविक दर्शन गुण को आच्छादित करता है। जैसे द्वारपाल दर्शक को राजा के दर्शन करने से रोकता है इसी तरह यह
कर्म भी आत्मा को दर्शन से वञ्चित करता है । यह भी दर्शनावरणीय कर्मः- धाति कर्म कहा जाता है।
" यह कर्म आत्मा के अव्याबाध सुख स्वरूप को आच्छादित कर देता है । इसके प्रभाव से आत्मा बाह्य-सांसारिक सुख या दुःखं का अनुभव
करता है। यह कर्म दो तरह का है-सातावेदनीय और वेदनीय कर्म:- असातावेदनीय । जिस कर्म के कारण जीव दुःख का अनुभव __ करता है वह. असातावेदनीय है और जिसके कारण जीव को बाह्य- सांसारिक-साता की प्राप्ति हो, वह सातावेदनीय है इसके स्वरूप को समझाने के लिए शहद से भरी हुई तलवार को चाटने का दृष्टान्तं दिया गया है। जैसे शहद लिपटी तलवार को जीभ से चाटने से क्षणिक मुखमिठास का अनुभव होता है परन्तु जिव्हा के कट जाने से बहुत काल तक दुःख उठाना पड़ता है। वैसे ही सांसारिक सुखोपभोग क्षणिक साता देने वाले हैं इनका परिणाम अन्ततः बड़ा दारुण है। यह अघाति कर्म कहा जाता है। .. .... . ... . ....... .....
...यह सब.कर्मों का राजा है । यह अपनी शक्ति के कारण आत्मा को ऐसा बेभान बना देता है जिससे वह अपने मूल स्वरूप को भूल कर. पर
स्वरूप को अपना समझने लगता है। जैसे शराबी शराब मोहनीय कर्म:--- पीने से वेभान हो जाता है इसी तरह इस कर्म के कारण . ....“आत्मा अपनी सुध-बुध भूल बैठता है । यह आत्मा की शुद्ध श्रद्धा-शक्ति को विकृत कर देता है। इसके कारण उसकी सर्व प्रवृत्तियाँ विपरीत हो जाती हैं। इस कर्म के दो रूपः हैं:-दर्शनमोह और चारित्र मोह । दर्शनमोह के कारण शुद्ध-श्रद्धा नहीं हो सकती और चारित्रमोह के
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