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जैन- गौरव -स्मृतियां:
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1. इसका समाधान करते हुए तत्वविचारकों ने कहा कि जो अनादि है वह अनन्त ही है ऐसा कोई नियम नहीं है। खान में स्वर्ण और मिट्टी का संयोग अनादि कालीन है तदपि अग्नि आदि के प्रयोग से उसका अन्त होता है । अतः अनादि होते हुए भी कोई वस्तु सान्त हो सकती है । कर्म और आत्मा का सम्बन्ध इसी प्रकार का है । वह अनादि होते हुए भी सान्त है | ज्ञान-ध्यान-तप आदि के द्वारा कर्म बन्ध से मुक्ति हो सकती है । ! अतः आत्मा और कर्म का सम्बन्ध आनादि सान्त है | प्रवाह की अपेक्षा अनादि अनन्त हो सकता है | कर्म सम्बन्ध प्रवाह रूप से अनादि होते हुए भी व्यक्ति रूप से सादि भी है क्योंकि रागद्वेषादि की परिणति से कर्म वासना की उत्पत्ति जीवन में होती रहती है । अतः आत्मा और कर्म का सम्बन्ध अनादि-सान्त, सादि सान्त और अनादि : अनन्त भी (भिन्न २ विवक्षाओं की अपेक्षा से ) कहा जा सकता है । सामान्य रुप से यह सम्बन्धनादिसान्त माना जाता
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जैनदर्शन में कर्म की आठ मूल प्रकृतियाँ मानी गई हैं, वे इस प्रकार हैं:- (१) ज्ञानावरणीय कर्म (२) दर्शनावरणीय कर्म (३) वेदनीय कर्म माँ की मल प्रकृतियाँ ( ७ ) गोत्र कर्म और ( ८ ) अन्तराय कर्म । ( ४ ) मोहनीय कर्म ( ५ ) आयुष्यकर्म ( ६ ) नाम कर्म
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यह कर्म आत्मा के विशुद्ध ज्ञान का आवरण करता है । जिस सूर्य मेघों से आच्छन्न हो जाता है इसी प्रकार आत्मा का ज्ञान भानु ज्ञानावरणीय कर्मः- मेघ-पटल जितने घने होते हैं उतना ही सूर्य का प्रकाश 'ज्ञानावरणीय कर्म रूपी मेघों से आच्छन्न होता है । ही अधिक सूर्य का प्रकाश होता है । जीवों में पाया जाने वाला मन्द होता है और मेघ-पटल जितने हल्के होते हैं उतना ज्ञान का तारतम्य इस कर्म के क्षयोपशम की विविधता के कारण हैं । जब यह कर्म सर्वथा 'दूर हो जाता है तब आत्मा का पूर्ण ज्ञातृ-स्वभाव प्रकट हो जाता है, वह सर्वज्ञ सर्वदशी कहलाता है | चाहे जितने घने मेघों का अवरण होने पर भी सूर्य का प्रकाश इतना तो प्रकट ही रहता है कि जिससे रात्रि और दिन का भेद किया जा सके । इसी तरह ज्ञानावरणीय कर्मों का
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