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* जैन-गौरव-स्मृतियां *
र सम्बन्ध होता है जिसके कारण शराब , पीते ही चैतन्य शक्ति पर आवरण
आ जाता है। इसी तरह आत्मा अमूर्त है और कर्म मूर्त हैं, तदर्पि मूर्स कर्मों से अमूर्त आत्म-शक्ति का आवरण हो जाता है। अमूर्त के साथ मूर्त का सम्बन्ध होना अघटित नहीं है ...
शुद्ध-बुद्ध आत्मा के साथ कर्म पुद्गल का सम्बन्ध क्यों हुआ, कब हुआ और कैसे हुआ ? इस प्रश्न का उत्तर सभी तत्त्वविचारकों ने एक सा ही दिय है । सांख्ययोग दर्शन में प्रकृति-पुरुष का सम्बन्ध, वेदान्त. दर्शन में माया और ब्रह्म का सम्बन्ध, न्यायवैशेषिक दर्शन में आत्मा और अविद्या, का सम्बन्ध, कैसे, कब और क्यों हुआ ? इसका उत्तर देते हुए वे सब विचारक यही कहते हैं कि इन दोनों का सम्बन्ध अनादि कालीन है. क्योंकि इस सम्बन्ध का आदि क्षणज्ञान सीमा के सर्वथा बाहर है । जैनदर्शन का भी यही मन्तव्य है कि आत्मा और कर्म का सम्बन्ध अनादि है। यह नहीं कहा जा सकता है कि अमुक समय में आत्मा के साथ कर्म का सम्बन्ध हुआ। यदि आत्मा और कर्म के सम्बन्ध की कोई आदि मान ली जाती है तो प्रश्न होता है कि उस सम्बन्ध के पहले आत्मा शुद्ध-बुद्ध था तो उसे कर्म क्यों कर लगे ? शुद्ध आत्मा को भी कर्म लग सकते हैं तो मुक्त होने के बाद भी कर्म लग सकते हैं यह मानना पड़ेगा । यह इष्ट नहीं है। अतः आत्मा और कर्म का सम्बन्ध अनादि कालीन है। एक बार प्रयत्न पूर्वक कों को आत्मा से सर्वथा अलग कर देने पर पुनः कर्म क्यों नहीं लगते ? इस प्रश्न का स्पष्टीकरण तत्वचिन्तकों ने इस प्रकार किया है कि आत्मा स्वभावतः शुद्ध-पक्षपाती है । शुद्धि के द्वारा आत्मिक गुणों का सम्पूर्ण विकास हो जाने के बाद रागद्वेष-अज्ञान आदि दोष जड़ से उच्छिन्न हो जाते हैं अतः वे प्रयत्न पूर्वक शुद्धि प्राप्त आत्मा में स्थान पाने के लिए सर्वथा असमर्थ हो जाते हैं। . .
कर्म और आत्मा का सम्बन्ध अनादि मानलेने पर भी यह शङ्का खड़ी होती है कि जो वस्तु अनादि है. उसका अन्त कैसे हो सकता हैं ? आत्मा और कर्म का सम्बन्ध यदि अनादि है तो उसका अन्त नहीं हो सकता है और कर्मों का अन्त हुए बिना मोक्ष नहीं हो सकता है। आत्मा और कर्म । का अनादि सम्बन्ध मानने पर यह बाधा क्यों नहीं उपस्थित होगी ? ...