________________
a
nd
-
-
---
See* जैन-गौरव स्मृतियां *See
जैसे देवदत्त अपने आपको अपनी आत्मा से जानता है इसमें देवदत्त कती भी है और करण भी है। "सांप अपने आपको अपने द्वारा लपेटने वाला भी सर्प है, लपेटा जाने वाला भी सर्प है और करण भी सर्प है। इस तरह एक ही पदार्थ में कर्तृ करण साव सम्बन्ध हो सकता है । अतएव ज्ञान और आत्मा की अभिन्नता में कोई दोप नहीं है। ज्ञान, आत्मा का स्वरूप है, यह भलीभांति सिद्ध हो जाता है
जैनदर्शन सम्मत आत्मा अमूर्त है। उसमें न रूप है, न रस है, न गन्ध है, न स्पर्श है । वह किसी भी आकृतिका नहीं है न वह गोल है, न
लम्बा है, न चौड़ा है, न त्रिकोण है, न चौरस है । वह सव __ अमूर्व प्रकार के आकार से रहित है। आत्मा अमूर्त है अतएव वह
इन्द्रियग्राह्य नहीं है । प्रायः सभी आत्मवादी दर्शनों ने आत्मा को अमूर्त माना है। आत्मा के इस अमूर्त्तत्व गुण के सम्बन्ध में सव दर्शन एक मत हैं। . जैनदर्शन यह मानता है कि प्रत्येक आत्मा अपनी सृष्टि का स्वयं स्रष्टा है। वह अपने सुख दुःख के लिए स्वयं उत्तरदायी है। वह स्वयं अपने
शुभाशुभ भाग्य का निर्माता है वह अपने कार्यों के द्वारा ही श्रात्मा का कर्तृत्व कर्म वन्धन में बँध कर सुख दुःख का अनुभव करता है और
अपने ही पुरुषार्थ के द्वारा कर्म की बेड़ियों को तोड़ कर मुक्त कहा गया है किहो जाता है । इसी लिए कहा गया है कि
अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाणय आत्मा ही सुख-दुख का कर्ता और विकर्ता है।
सांख्य दर्शन के अनुसार पुरुप-आत्मा-नित्य, शुद्ध, असंग, निस्पृह अलिप्त और अकर्ता है। उसके अनुसार जगत् के व्यापारों के साथ पुरुप
का कोई सम्बन्ध नहीं है; प्रकृति ही सब कार्य करती है। सांख्यदर्शन का आत्मा अमूर्त, नित्य और सर्वव्यापी है इस लिए वह मन्तव्य कर्ता नहीं हो सकता है । वह न स्वयं क्रिया करता है और
न कराता है। जिस प्रकार दर्पण प्रतिविम्वित मूर्ति अपनी