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पदार्थ बोध ही नहीं हो सकता है। जैसे जिनचन्द्र किसी वस्तु को जानता है । तो इससे ज्ञानचन्द्र का अज्ञान दूर नहीं होता क्योंकि जिनचन्द्र का ज्ञान, ज्ञानचन्द्र के ज्ञान से सर्वथा भिन्न है। मतलब यह है कि जो ज्ञान जिससे सर्वथा भिन्न होता है उससे उसको ज्ञान नहीं हो सकता । यदि ऐसा न माना जाय तो एक व्यक्ति के ज्ञान से सब के अज्ञान की निवृत्ति हो जानी चाहिए। मगर ऐसा नहीं होता । प्रत्येक व्यक्ति अपने ज्ञान के द्वारा ही अपने अज्ञान को नष्ट कर सकता है। दूसरे के ज्ञान से हमें वस्तु का बोध नहीं हो सकता क्योंकि उसका ज्ञान हमारी आत्मा से सर्वथा सिन्न है। इसी तरह यदि हमारा ज्ञान हमारी आत्मा से भी सर्वथा भिन्न है तो वह हमें भी कैसे ज्ञान करा सकता है ? इसलिए यह मानना चाहिए कि ज्ञान आत्मा से सर्वथा भिन्न नहीं है लेकिन आत्मा का ही स्वरूप है।
___ यहाँ न्याय-वैशेपिकाचार्य कहते हैं कि छात्मा और ज्ञान भिन्नभिन्न तो हैं लेकिन वे समवाय सम्बन्ध से सम्बद्ध है अतएव जो ज्ञान जिस आत्मा में समवाय सम्बन्ध से रहता है वह ज्ञान उली आत्मा को पदार्थ का बोध करा देगा । दूसरी आत्मा को नहीं । यह कथन भी समाधान कारक नहीं है। योंकि लमवाय सम्बन्ध नित्य सम्बन्ध को कहते हैं अर्थात् जो सम्बन्ध अनादि से है वह समवाय कहा जाता है। यह समवाय उनके मत से नित्य . और सर्व व्यापक है । उनके मत में आत्मा भी सर्व व्यापक है । इससे प्रत्येक आत्मा के साथ ज्ञान का समवाय सम्बन्ध एक सरीखा होगा । जैसे आकाश नित्य और व्यापक है तो उसका सम्बन्ध सभी के साथ है, इसी तरह समवाय का सम्बन्ध भी खव के साथ है फिर प्रतिनियत ज्ञान का नियामक . . . कौन होगा ? अतएव यही मानना चाहिए कि आत्मा ज्ञानम्वरूप ही है।
यहाँ शंका होती है कि आत्मा और ज्ञान में कर्तृ कारण भाव सम्बन्ध है। "मैं ज्ञान से जानता हूं" इसमें "मैं" से ज्ञाता मालूम होता है और 'ज्ञान' कारण मालूम होता है । जिनमें कर्तृ करण भाव सम्बन्ध होता है वे परस्पर भिन्न होते हैं, जैसे सुधार और कुठार जैसे सुथार रूप कर्त्ताऔर कुठार रूप करण भिन्नरमालूम होते है वैसे ही ज्ञान और आत्मा भी भिन्नर होने चाहिए। इस का समाधान यह है कि जहाँ फर्ट करण भाव होता है वहाँ भिन्नता ही होती हैं, ऐसा कोई नियम नहीं है । एक वस्तु में भी कर्ट करण भाव देखा जाता है XXXCCCTRESC(२०२):XXXXXXSAKXEXXX