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* जैन-गौरव-स्मृतियां
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स्थिति के लिए प्रयत्न नहीं करती है किन्तु प्रयत्न के बिना ही वह उस दर्पण में स्थिति रहती है इसी तरह आत्मा अपनी स्थिति के लिए प्रयत्न किये विना ही स्थित रहता है । इसलिए आत्मा अकर्ता है। वास्तविक दृष्टि से प्रात्मा भोक्ता भी नहीं है परन्तु जपा-स्फटिक न्याय के अनुसार वह मोक्ता कहा जाता है । जैसे स्फटिकमणि के पास लाल फूल रख देने से वह मणि भी लाल प्रतीत होती है, वस्तुतः वह लाल नहीं अपितु शुक्ल है। इसी तरह बुद्धि उभय मुख दर्पणाकार है जिससे सुख-दुःख बुद्धि में संक्रांत होते हैं और उनका प्रतिविस्व शुद्ध स्वभाव वाले पुरुष पर पड़ता है । इस कारण पुरुष में वास्तविक भोग न होने पर भी वह उपचार से भोक्ता माना जाता है। यह सांख्य मत का अकर्तृत्ववाद है । सांख्यमत में आत्मा का स्वरूप इस प्रकार है-"अकर्ता निगुणो भोक्ता आत्मा सांख्यनिदर्शने"।
सांख्यदर्शन की उक्त मान्यता जैन न्याय आदि दर्शनों को मान्य नहीं है। जैनाचार्य स्पष्ट कहते हैं कि यदि आत्मा कर्ता और भोक्ता नहीं है तो यह बन्ध-मोक्ष व्यवस्था और धर्माधर्म निरुपण किस लिए है ? आत्मा यदि अकर्ता है तो "मैं सुनता हूं" "मैं देखता हूँ" इत्यादि प्रतीति हुआ करती है, वह नहीं होनी चाहिए । इस प्रकार की प्रतीति सबको होती है । अतः आत्मा का अकर्तृत्व अनुभव-विरुद्ध है । स्वयं सांख्य दर्शन भी ज्ञान को तो आत्माकापरुषका कार्य स्वीकार करता ही है। ऊपर जो जपा-त्फटिक न्याय के अनुसार
आत्मा में भोक्तृत्व स्वीकार किया गया है वह आत्मा को परिणामी माने विना घटित नहीं हो सकता है। जैसे स्फटिक में प्रतिविम्ब पड़ता है तो स्फटिक में परिणाम-विकार-होना मानना पड़ता है। इसी तरह यदि सुख-दुख
आत्मा में प्रतिविम्वित होते हैं तो इससे आत्मा में-पुरुष में कुछ न कुछ परिणाम विकार मानना पड़ेगा। पुरुप को एकान्त कूटस्थ नित्य मानने पर यह जपा-स्फटिकवत् भोक्तृत्व घटित नहीं हो सकता है। आत्मा को जब आंशिक भोक्ता माना जाता है तो उसे का मानना ही पड़ेगा क्यों कि जो कर्त्ता न हो, वह भोक्ता कैसे बन सकता है ? अतः. आत्मा को कर्त्ता चौर भोक्ता मानना चाहिये । ऐसा माने विना लोकव्यवस्था, बन्धमोक्ष व्यवस्था और धर्मानुष्ठान व्यवस्था नहीं बन सकती है।
जैनदर्शन आत्मा को किस अपेक्षा स्टे किस २ भाव का कर्त्ता मानता