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* जैन-गौरव-स्मृतियां
वेश हो जाता है। प्रस्तुत प्रकरण में हमें यह विचारना है कि जैनदर्शन सम्मत जीव का स्वरूप क्या है ? अन्य दर्शनों के साथ वह स्वरूप कहाँ तक मिलता है और कहाँ कहाँ इस विषय में विचार भेद है, यह उल्लेख भी यहाँ संक्षेप में किया जाएगा। .. .
जैन दर्शन की तरह साँख्य और योग दर्शन में 'पुरुष' के नाम से तथा न्याय-वैशेषिक और वेदान्त ने 'आत्मा' के नाम से जीव या आत्मा का अस्तित्व स्वीकार किया है। चौद्ध दर्शन विज्ञान प्रवाह से अतिरिक्त आत्मा या जीव की सत्ता स्वीकार नहीं करता है और चार्वाक दर्शन तो जड़द्रव्य के अतिरिक्त किसी अन्य पदार्थ का अस्तित्व ही नहीं मानता है । इस तरह चार्वाक और बौद्ध दर्शन अनात्मवादी हैं और शेप आत्मवादी हैं।
आत्मवादी दर्शनों में आत्मस्वरूप के विषय में जो विचारभेद हैं .उनकी सीमांसा करने के पहले आत्मवादी दर्शनों की युक्तियों और उनकी . संगति या असंगति पर विचार कर लेना उचित है।
चार्वाकदर्शन पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश रूप पञ्च महाभूतों को ही सत् मानता है। इसके सिवाय और कोई सत् पदार्थ वह नहीं
. स्वीकार करता है । जगत् के संब पदार्थ इन पाँच महाभूतों अात्मा का निषेध के सम्मिश्रणं से ही उत्पन्न होते हैं यह उसकी मान्यता
है। मनुष्यादि जीव चेतन हैं यह तो माने विना नहीं चल सकता है । चैतन्य प्रत्यक्ष सिद्ध है इसलिए उसको अस्वीकार कैसे किया जा सकता है ? परन्तु वह कहता है कि चैतन्य है इस लिए आत्मा होना ही चाहिए, ऐसी बात नहीं है । चैतन्य तो भूतों का धर्म है । जव पय्च महाभूत कायाकार परिणत होते हैं तो उनसे चैतन्य प्रकट होता है। जैसे मद्य के अंगों के मिलने पर उनसे मद शक्ति प्रकट होती है इसी तरह कायाकार परिणत भूतों से चैतन्य प्रकट होता है। जैसे जल से बुदबुद प्रकट होता है उसी तरह भूतों से चैतन्य प्रकट होता है । यह चार्वाक दर्शन का मन्तव्य है।
आज के युग के कतिपय जड़वादी भी इसी तरह का अभिप्राय । व्यक्त करते हैं कि "जैसे यकृत में से रस निकलता है उसी तरह मस्तिष्क