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जैनगौरव -स्मृतियां
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स्वरूप मानता है । जैन सम्मत ईश्वर का स्वरूप शुद्ध वैज्ञानिक है। इसकी प्रशंसा करते हुए डॉ. आ. परटॉल्ड कहते हैं:
"जैनों की ईश्वर विषयक मान्यता विचार शील प्राणियों के मनमें स्वाभाविक रूप से आ सके, ऐसी है । उनके मत से ईश्वर परमात्मा है मगर वह जगत् का स्रष्टा या नियन्ता नहीं । वह पूर्ण अवस्था में पहुंचा हुआ जीव होने से पुनः जगत् में नहीं आता अतः वह पूज्य और वन्दनीय है। जैनों की ईश्वर विषयक मान्यता सुप्रसिद्ध जर्मन महातत्त्वज्ञ नित्शे की 'सुपरमेन' अर्थात् मनुष्यातीत कोटि की मान्यता से मिलती-जुलती है । जैनधर्म की ईश्वर विपयक मान्यता में मुझे इस धर्म का उदात्त स्वरूप दिखाई दिया है। जो लोग जैनधर्म को अनीश्वर वादी समझकर उसके धर्मत्व पर आक्षेप करते हैं उनके साथ मेरा प्रबलतर विरोध है ।"
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उक्त वक्तव्य से जैनदर्शन सम्मत ईश्वर के स्वरूप की वैज्ञानिकता प्रकट हो जाती है । वास्तव में, जैनदर्शन, जीवात्मा को परमात्म पद का अधिकारी घोषित करके यह भव्य प्रेरणा प्रदान करता है कि "हे जीवात्माओ ! तुम भी स्वभावतः परमात्मा हो-शुद्ध हो, बुद्ध हो, उठो ! जागृत बनो! कर्म की श्रृंखलाओं को अपने प्रवल पुरुषार्थ से तोड़ फेंको। तुम प्रवल पौरुप से अपने अन्दर रहे हुए ईश्वर भाव को प्रकट कर सकते हो। तुम और ईश्वर एक हो। तुममें और उसमें कोई मौलिक भेद नही है । यतः अपने परमात्म स्वरूप को प्रकट करने के लिए तत्पर बनो ।"
सचमुच जैनदर्शन ने विश्व को ईश्वर के सम्वन्ध में सर्वथा नवीन प्रकाश प्रदान किया है ।
जैन दर्शन में चात्मा का स्वरूप
विशाल विश्व के अनन्त पदार्थों का वर्गीकरण करते हुए जैन दर्शन ने मूल रूप में दो तत्व स्वीकार किये हैं । वे हैं— जीव और अजीव । जिसमें चैतन्य शक्ति है वह जीव है और जिसमें चैतन्य का अभाव है वह अजीव है। इन दो तत्वों में ही चराचर विश्व के समस्त दृष्ट पदार्थों का सेमा
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