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See* जैन-गौरव-स्मृतियां *
वश ये उत्पन्न होते हैं। चूकि ये निमित्त से उत्पन्न होते हैं इसलिए इनका कोई कर्ता अवश्य होना चाहिए। जैसे घड़ा निमित्त से उत्पन्न होने वाला है । तो उसका बनाने वाला कुम्हार होता है इसी तरह पृथ्वी, पर्वत आदि कार्य हैं-निमित से उत्पन्न होने वाले हैं. इसलिए इनका भी कोई बनाने वाला अवश्य होना चाहिए । पृथ्वी, पर्वत आदि कार्य हैं क्योंकि ये सावयव हैं-छोटे छोटे परमाणुओं की रचना है। परमाणुतो स्वयं अचेतन हैं इसलिए इनका संयोजक कोई चेतनाविशिष्ट बुद्धिमान कर्ता होना चाहिए । यह बुद्धिमान कर्ता ईश्वर ही है। वह करुणावश सृष्टि की रचना करता है। . . .
न्यायदर्शन की इस युक्ति पर विचार करना चाहिए कि यह कहां तक ठीक है । जैनाचार्यों ने इसका प्रबल विरोध किया है। यह संसार एक कार्य है, यह वात जैन दर्शन नहीं मानता। नैयायिक स्वयं भी यह मानते हैं कि द्रव्य की अपेक्षा यह नित्य है । पृथ्वी को वे भी 'नित्या परमाणु रुपा अनित्या कार्य रूपा' मानते हैं। पर्याय की अपेक्षा उत्पाद-विनाश होने मात्रसे कोई वस्तु कार्य रूप नहीं मानी जा सकती है। आत्मा में भी विविध परिणमन होता है, वह अवस्थान्तर को प्राप्त होने मात्र से कोई कार्य मान लिया जाय तो ईश्वर को भी कार्य मानना पड़ेगा क्योंकि उसके द्वारा किये जानेवाले सृष्टिसर्जन, संहार आदि से उसमें भी अवस्थान्तर की प्राप्ति तो होती ही हैं। ईश्वर को कार्य मानने पर उसके कर्ता की भी कल्पना करनी पड़ेगी। इस तरह यह परम्परा अनवस्था दोष का कारण होगी। इसलिए नैयायिकों ने जो जगत् को कार्य माना है और उसका कर्त्ता ईश्वर को बतलाया है, यह युक्ति संगत नहीं प्रतीत होता ।
'ईश्वर कर्तृत्ववादी ईश्वर को अशरीरी दयालु, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, नित्य और सम्पूर्ण मानते हैं। यदि ईश्वर को जगत्कर्ता माना जाता है तो उसके उक्त विशेषणों में बाधा उपस्थित होती है। ईश्वर यदि सृष्टिका निर्माण करता है तो उसे शरीर युक्त होना ही चाहिये । अशरीरी ईश्वर इस मूर्त संसार का निर्माण किस तरह कर सकता है ? यदि यह कहा जाय कि ईश्वर समर्थ है इसलिए शरीर की कोई आवश्यकता नहीं वह अपने ज्ञान चिकर्षा ( करने की इच्छा ) और प्रयत्न के द्वारा निर्माण कर सकता है। इसके उत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि शरीर के बिना चिकीर्पा और प्रयत्न कैसे सम्भव हो सकते हैं। मुक्तात्मा की तरह यदि ईश्वर अशरीर है तो उसमें . ..