SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 147
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन-गौरव-स्मृतियाँ हो सकती है। इसलिए इस विश्व का कोई सृष्टा अवश्य होना चाहिए ।" यह मान्यता न्यायदर्शन की है। वैशेषिकदर्शन भी इससे सहमत है । विविध वैष्णव और शैव सम्प्रदाय इस मान्यता के अनुयायी हैं। इसके अनुसार वे जगत् का युग युग में नवीन उत्पन्न होना और लय होना स्वीकार करते हैं । उनके मत से युग के आरम्भ में ईश्वर नवीन सृष्टि का सृजन करता है और युगान्त में उसका संहार करता है । इस बाद के अनुसार यह विश्व सादि और सान्त है । >> पाश्चात्य दर्शनों में भी इस प्रकार का सृष्टिवाद है जो "थिइज्म" कहलाता है । इसके प्रतिपादन में वे इस प्रकार कहते हैं कि- "एक घड़ी को लीजिए | उसकी सूइयाँ और पुजें कितने नियमित रूप से पाश्चात्य सृष्टयवाद अपना २ काम करते रहते हैं । इसे देखकर यह अवश्य ध्यान में आता है कि इस यंत्र का बनाने वाला कोई न कोई बुद्धिमान अवश्य है । इसके विना यह यंत्र नहीं बन सकता है। घड़ी को देख कर उसके बनाने वाले की कल्पना हुए विना नहीं रह सकती है। अच्छा, थोड़ी देर के लिए इस असीम अनन्त आकाश की तरफ दृष्टिपात करो, इसमें कितनेकितने ग्रह-नक्षत्र अपनी २ मर्यादा में रह कर व्यवस्थित रूप से विचरण करते हैं । आकाश को ही नहीं, अपनी पृथ्वी को भी देखो | यह पृथ्वी एक दिन आग के गोले के समान थी । इस पर न जाने कितने संस्कार हुए तब यह मनुष्यों और प्राणियों के रहने के योग्य हुई । इस पर पैदा होने वाले अंकुर पत्र, पुष्प, फल, वृक्ष आदि के विकास क्रम को देखो । क्या इस श्रविच्छिन्न विकासक्रम में तुम्हें किसी परम बुद्धिशाली का हाथ नहीं मालूम होता है ? मनुष्य और पशुपक्षियों के अंगोपाङ्गों को देखो, उनकी रचना में कितनी सूक्ष्मता से काम लिया गया है ! वह कितनी अद्भुत हैं ! इन सब की रचना करने वाला कोई बुद्धिमान रचयिता होना चाहिए। वह ईश्वर ही हैं । उस ईश्वर की अनन्त करुणा जगत्सृष्टि के रूप में प्रकाशित हो रही है। भारतीय न्यायवैशेषिक दर्शन परम्परा भी इसी से मिलती-जुलती युक्तियाँ उपस्थित करती हैं। उनकी प्रधान युक्ति यह है यह संसार एक कार्य है । पृथ्वी, पर्वत ध्यादि कार्य हैं और निमित्त **exidoioioiieretetex(?<«»)»rex+x+xde@exxx
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy