________________
★
जैन - गौरव -स्मृतियां ★><
प्रयत्न और चिकीर्षा कैसे रह सकते हैं ? जहाँ इच्छा और प्रयत्न है वहाँ पूर्णता भी कैसे मानी जा सकती है ? इसलिए ईश्वर को कर्त्ता मान लेने पर उसे सशरीरी भी मानना पड़ेगा । सशरीरी होने पर वह संसारी जीव जैसा सामान्य हो जाएगा । वह ईश्वर ही न रहेगा । यह बात कर्त्तव्य वादियों को इष्ट नहीं है।
1
'करुणा से प्रेरित होकर ईश्वर सृष्टि की रचना करता है' यह कथन भी मिथ्या ठहरता है | यदि ईश्वर सचमुच दयालु है और सर्व शक्तिमान भी है तो उसने इस दुःखमय सृष्टि की रचना क्यों की ? क्यों न उसने एकान्त सुखी और समृद्ध विश्व की रचना की ? सारे संसार का अवलोकन करो, कहीं सुख-शान्ति की छाया भी नहीं दिखाई देती । रोग, शोक, वियोग, संघर्ष, भूकम्प, उल्कापात, युद्ध, मृत्यु आदि नाना प्रकार के दुःखों से संसार दुःखी है। कहीं एक वृद्धा अपने जीवनाधार इकलौते पुत्र की मृत्यु पर विलाप कर रही है, कही एक पोडशी बाला असमय में ही अपने प्राणप्रिय पति की मृत्यु के कारण पत्थर को पिघला देने वाला करुण क्रन्दन कर रही है, कही असंख्य प्राणि भूख के मारे विल-बिला रहे हैं, कहीं भयंकर व्याधि फैली हुई है, कहीं युद्ध की ज्वाला में हजारों मानव भस्म हो रहे हैं, कहीं पृथ्वी फट पड़ती है, कहीं अतिवृष्टि से परेशानी है तो कहीं वृष्टि का नामो-निशान न होने से भयंकर दुष्काल है ? क्या इस प्रकार की सृष्टि किसी करुणामय और शक्ति सम्पन्न की कृति मानी जा सकती है ? कदापि नहीं ।
ईश्वर राग-द्वेप से रहित और समभावी माना जाता है । क्या राग परहित ईश्वर, किसी प्राणी को सुखी और किसी को दुखी बना सकता है ? यदि समभावी ईश्वर ने सृष्टि बनाई है तो एक निर्धन, दूसरा धनी; सेवक एक स्वस्थ दूसरा रोगी, एक राजा दूसरा रंक, एक स्वामी दुसरा क्यों है ?
उक्त श्राक्षेपों का उत्तर देने का प्रयत्न करते हुए कर्तृत्ववादी कहते हैं कि:- "जीव जैसा करता है वैसा ही फल पाता है । जो जैसा वोता है वह वैसा ही फल प्राप्त करता है । प्राणी अपने सुख-दुख के लिए स्वयं ही उत्तरदायी है । कर्मफल अथवा अष्ट के कारण जन्म जन्मान्तर जीव भोगा
XXXXXX
***********X*XXX (?) XXXX
(१७७)