________________
See जैन-गौरव-स्मृतियां *Here
इसका मोल नहीं हो सकता है। मगध का सम्राट श्रेणित अपनी अपरिमिते.' धनराशि से भी पूणिया श्रावक की एक सामायिक का मोल कर सकने में असमर्थ रहा । जिसने इस व्रत की साधना के द्वारा आत्मा के अनुपम सौन्दर्य और अलौकिक ऐश्वर्य का अनुभव कर लिया होता है वह संसार की समस्त सम्पत्ति को तुणतुल्य तुच्छ समझता है। आत्मा के ऐश्वर्य के सामने जड़ ऐश्वर्य का क्या मोल ? हीरे के आगे काच की क्या कीमत ? मोती के सामने गुजाफल की क्या बिसात ?
.. . सम्पूर्ण सामायिक व्रती के जीवन में पाप-प्रवृति होती ही नहीं। वह अहिंसा और सत्य का पूरा पुजारी होता है। इसे शास्त्रीय भाषा में 'परिपूर्ण सामायिक-चारित्र' कहते हैं। जो व्यक्ति ऐसा परिपूर्ण सामायिक चारित्र अंगीकार नहीं कर सकता है उसे उपयुक्त अल्पकालीन सामायिक व्रत स्वीकार करना चाहिए । अल्पकालीन प्रत स्वीकार से भी जीवन में शान्ति का अनुभव होने लगता है तो यावज्जीवन सामायिक व्रत के स्वीकार से मिलने वाली शान्ति का क्या कहना। ...........।
मनुष्य का मन सदा एक सी स्थिति में नहीं रहता । उसकी विचार शक्ति सदा एक सा काम नहीं देती। इसलिए प्रलोभनों और संकटों के समय कार्याकार्य का बराबर निर्णय नहीं किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में अपनी दृढ़ता को कायम रखने के लिए ऐसे व्रतों की आवश्वकता होती है। प्रतिदिन चिन्तन, मनन, वाचन और मन्थन के लिए नियमित रूप से थोड़ा समय निकालने से मानसिक दृढता बढ़ती है, विचार शक्ति का विकास होता है और विकारों का शवन होता है । सामायिक व्रत की इस दृष्टि से भी अत्यधिक उपयोगिता है। :
_गृहस्थ को अपने दैनिक जीवन व्यवहार में विविध प्रवृत्तियाँ करनी पड़ती हैं । उसका जीवन प्रायः प्रपञ्चमय होता है। अतः उसके लिए यह आवश्यक है कि वह थोड़ा समय ऐसा निकाले जिसमें वह अपने आध्यात्मिक जीवन का पोपण कर सके । दुनियादारी के कार्यों के लिए इतना समय निकाला जाता हैं तो आत्मिक कार्य के लिए ४८ मिनट का समय निकालना क्या अनिवार्य नहीं होना चाहिए ? विवेकशील गृहस्थ अवश्य . इतना समय